श्रद्धांजलिः सदियां गुजर जायेंगी, मगर बेकल उत्साही के गीत लोगों को बेकल करते रहेंगे

December 4, 2016 4:05 PM0 commentsViews: 686
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सग़ीर ए खाकसार
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बलरामपुर। गंगा यमुनी मुशायरों की शान, अवधी उर्दू के गीतकार, बेकल उत्साही के निधन से हिंदुस्तान का साहित्य जगत स्तब्ध और गहरे सदमे में है।उ.प्र. के एक छोटे से गाँव रमवापुर, उतरौला ज़िला बलरामपुर में 28 जून 1928 में जन्मे बेकल उत्साही ने अपने जीवन की आठ दहाइयों को खूब जिया।साहित्य को भरपूर ऊर्जा दी।दिशा भी दी।
करीब पांच दशकों तक मुशायरों और काव्य मंचों के इस अज़ीम शायर ने अपनी ग़ज़लों से पूरी दुनिया में  अमिट छाप छोड़ी।गाँव,खेत,खलिहान,और पगडंडियों की याद दिलाने वाले इस महान शायर ने कभी भी अपनी मिटटी से नाता नहीं तोड़ा।दुनिया की सैर सपाटा के बाद बलरामपुर की मिट्टी ही इन्हें दिली सुकून देती थी।इसी वजह से ये हमेशा बलरामपुर से कभी नाता तोड़ नहीं पाए।
अमूमन यह देखा गया है कि कामयाबी और शोहरत के बाद अक्सर लोग अपने वतन और मिटटी से कट जाते हैं।शायद कम लोगों को पता हो क़ि अली सरदार जाफरी का जन्म भी बलरामपुर में ही हुआ था।  बेकल उत्साही में सादगी थी।फक्कड़पन था।मस्त मौला किस्म के इंसान थे।

 

जंगे आजादी में जेल गये 
बेकल साहिब का जन्म एक ज़मीदार परिवार में हुआ था।नाशिस्तें अदबी मुशायरे उनके घर पर होते थे।बचपन से साहित्य ने जड़े जमानी शुरू कर दी थीं।जब देश ग़ुलाम था ।बेकल साहिब राजनैतिक नज़्में लिखा करते थे।अंग्रेज़ों को यह बात नागवार गुज़रती थी।कई बार क्रन्तिकारी और देशभक्ति ग़ज़लों को लिखने की वजह से जेल भी जाना पड़ा।वह साहित्य की कमोबेश हर विधा में माहिर खिलाडी थे।बात चाहे नात ए पाक की हो, कशीदा, मनकबत, दोहा, रुबाई, ग़ज़ल, या फिर गीत सभी विधाओं में खूब लिखा।
शायर और लेखक नज़ीर मलिक बेकल साहिब को याद करते हुए कहते हैं “यार बन्दे में दम था’।नज़ीर मालिक बेकल साहिब की यह  रचना जिसमे कान्हा का ज़िक्र है ,सुनाते हुए श्रधांजलि देते हैं।।
ऐसा दर्पण मुझे कन्हाई दे,
जिसमे सूरत तेरी दिखाई दे।              
दे कलम अपनी बांसुरी जैसी,
अपनी रंगत की रोशनाई दे।                                
बंट गये हैं  दहाइयों में लोग,
अब मेरे देश को इकाई दे।
दोस्ती का उद्धार है तुझ पर,                  
हक सुदामा का पाई पाई दे।
                
कैसे मिला बेकल उत्साही का नाम
बेकल और उत्साही ये दोनों नाम  उन्हें इनाम में मिले थे । बेकल नाम उन्हें वारिस पाक के दरबार में नात पढ़ने के एवज में बतौर सदका वहां के मुजावर ने 1945 में दिया था।तो उत्साही नाम 1952 में नेहरू ने गोण्डा में किसान गीत पर मन्त्र मुग्ध हो कर दिया था।तभी से वो बेकल उत्साही के नाम से मशहूर हो गए।दरअसल उनका असली नाम शफी खान था।बात बलरामपुर में आयोजित जश्ने ए बेकल  के वक्त का है।इसका आयोजन तत्कालीन चेयरमैन मरहूम जावेद आलम ने किया था।पुरे हिंदुस्तान से शायर और कवियों ने हिस्सा लिया था। जश्न के बाद घर पर हस्बे मामूल बेकल साहिब ने एक से बढ़कर एक रोचक किस्से सुनाए।बकौल बेकल साहिब बलरामपुर का उनका घर बनवाने में नेहरू जी ने करीब 35 हज़ार रुपये दिए थे।वो कुछ भी मानो छुपाना नहीं चाहते थे।सब कुछ सबको बता देना चाहते थे।
     साहित्यिक और सामाजिक संस्था बलरामपुर के अध्यक्ष आज़ाद सिंह कहते है बेकल साहिब समकालीन उर्दू शायरी के बेहद लोक प्रिय और चर्चित शायर थे।उनकी रचनाएं भारतीय संस्कृति और जनमानस में रची बंसी थीं।श्री आज़ाद सिंह उन्हीं की पंक्तियों से उन्हें खिराजे अकीदत पेश करते है ।वो कुछ भी वो कुछ
कहें लेकिन, तन्हाई के आलम में,
कुछ गीत तेरे बेकल दोहराए गये होंगे
जब ताजमहल कोई तामीर हुआ हो,
मकतल में हमीं जैसे ले जाए गये होंगे।
नेहरू परिवार के बहुत करीब रहे बेकल साहब
 बेकल साहिब ने हिंदी और उर्दू दोनों को पूरी दुनिया में अपनी रचनाओं से परिचित करवाया।1976 में उन्हें पद्म श्री से नवाजा गया।1986 में वो राज्यसभा में गए।नेहरू से लेकर राजीव गांधी तक वो कांग्रेस से करीब रहे।राजीव गांधी उन्हें बहुत प्यार करते थे। तमाम साहित्यिक अवार्ड से बेकल साहिब को समय समय पर नवाज़ भी गया।उन्हें समानित करने वाले लोग खुद को ज्यादा सम्मानित महसूस करते थे।1980 में मीर तकी मीर अवार्ड,1982 में नात पाक अकादमी पाकिस्तान दुवारा गोल्ड मैडल, के अलावा कई अन्य अवार्ड से भी नवाजा गया था।उन्हों दर्जनों किताबे भी लिखी थीं।जिसमे 1952 में विजय बिगुल कौमी गीत,1953 बेकल रसिया,अपनी धरती चाँद का दर्पण,पुरवइया, महके गीत, निशाते ज़िन्दगी आदि प्रमुख है।
बलरामपुर यूपी के नेपाल बॉर्डर से सटा हुआ है।नेपाल और भारत के रिश्तों की जब हम बात करते हैं तब सबसे पहले जो हमारा अटूट  रिश्ता नेपाल से बनता है वो है रोटी और बेटी का रिश्ता।बेकल साहिब ने यह रिश्ता भी खूब निभाया।उनकी बड़ी बेटी नेपाल सीमा से सटे लक्ष्मी नगर में ब्याही है।यहाँ उनका अक्सर आना होता था।खबर मिलते ही मैं उनसे मिलने पहुँच जाता था।खूब सियासी और साहित्यिक बातें होती थी।
नेपाल के राष्ट्रकवि का पद ठुकरा दिया था
शायद यह बात कम लोगों  को मालूम हो क़ि नेपाल का राज घराना भी बेकल साहिब का मुरीद था।यहाँ का शाही दरबार बेकल को हमेशा हमेशा के लिए अपनाना चाहता था।बकौल बेकल साहिब तत्कालीन राजा महेंद्र ने तो उन्हें नेपाल का राष्ट्रीय कवि तक बनाना चाहा।राजा की इच्छा थी कि बेकल हमेशा हमेशा के लिए नेपाल के हो जाएं।लेकिन जो शख्स भारत की मिट्टी से बेपनाह मोहब्बत करता था।जिसे बलरामपुर छोड़ना गवारा न था।भला वह कैसे अपना देश छोड़ देता।
नेपाल के कपिलवस्तु के युवा सांसद अभिषेक ने उन्हें आला दर्जे का शायर बताया।
 बेकल साहिब अब हमारे बीच नहीं रहे।उनकी यादें और ग़ज़ले हमेशा ज़िंदा रहेंगी।कुछ लोग उन्हें बलरामपुर का ख़ुसरो भी कहते थे।हम कैसे याद करेंगे उनको। शायद हमारी कशमकश का अंदाज़ा बेकल साहिब को पहले से ही था।इसलिए तो उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कहने से ही पहले लिख दिया था।    सुना है u  न तो जोश न गालिब न मीर जैसा था,

अपने गाँव का शायर नजीर जैसा था!
छिडेगी बहस यह दैरो हरम में मेरे बाद,
अपने वक्त का बेकल कबीर जैसा था!
 हम लोग तो उन्हें प्यार से अब्बू कह कर पुकारते थे।अलविदा अब्बू!

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