अंग्रेजपरस्तों, साहूकारों व जमींदारों को लूट कर स्वतंत्रता सेनानियों को धन देता था ‘सियारमरवा’ गिरोह
नजीर मलिक
सिद्धार्थनगर। वे दिन भर लाठी भाले लेकर पूरा दिन चलते थे। उनके पीछे कुछ कुत्ते भी चलते थे। एक दर्जन लोगों का यह गिरोह अपने आप को सियार मारने वालों का दल कहता था। देखने में यह सच भी लगता था, क्यों कि उस समय की कुछ जनजातियों के लोग सियारों को अपने कुत्तों के सहारे मार कर खाते भी थे। इसके लिए वह लाठी, भाले और कुत्ते के साथ खनाबदोश बन कर गांव गांव डेरे लगा कर घूमते और सियारों का शिकार करते। इसी लिए वे सियारमरवा कहे जाते थे।
यहां चर्चा है उस सियारमरवा गिरोह की जो वास्तव में जजातीय नहीं था, वरन वह स्वाधीनता सेनानियों की मदद के लिए फटे पुराने चीथड़े पहन और साथ में लाठी, भाला कुत्ता लेकर दिन भर गांवों के सीवानों में दर दर सीवान भटकता था और रात को किसी अंग्रेजपरस्त जमींदार या सेठ के घर डाका डाल कर मिले धन को सेनानियों को भेज देता। इसके अलावा वह अंग्रेजों की जासूसी कर उनके खुफिया राज भी सेनानियों को भेजने का काम करता। १९४२ के राष्ट्रव्यापी स्वाधीनता आंदोलन में इस गिरोह की सक्रियता जिले में चरम पर थी।
8 अगस्त 1942 को भारत छोड़ो आंदोलन की घोषणा हो चुकी थी। पूरे देश में हड़ताल और तोड़ फोड़ की कार्रवाइंया तेजी पर थीं। और स्वाधीनता सेनानियों को जेलों में ठूंसा जा रहा था।इससे जनता में भारी आक्रोश था। वे हिंसात्मक कार्रवाइयों में लिप्त होने लगे थे। इसी दौरान जिले में सियारमरवा गिरोह का उदय हुआ। यह गिरोह कौन था तथा कहां से आया था, इसके बारे में अधिक जानकारी नहीं है लेकिन 1905 के बस्ती गजेटियर व सूचना विभाग सिद्धार्थनगर की पत्रिका के तथ्यों के अनुसार इस गिरोह के नेता का नाम बली सिंह और बलिकरन सिंह था। उनकी बोली से पता चलता था कि वे पूर्वीउत्तर प्रदेश के किसी जिले के थे।
वे सिद्धार्थनगर के बांसी मिश्रौलिया क्षेत्र में अधिक सक्रिय थे। उस वक्त बांसी क्षेत्र के तत्कालीन जमींदार अष्टभुजा श्रीवास्तव का आतंक था। वह अंगेजों के वफादार थे। उन्होंने अपने पास के एक कांग्रेसी गांव भगौतापुर को दिन दहाड़े आग लगवा दिया था क्येंकि वह पूरा गांव देश की आजादी के पक्ष में आंदोलनरत था। यही नहीं उन्होंने सेनानियों के नेता अयोध्या प्रसाद यादव की मूंछे चिमटी से उखडवा कर उन्हें मृत जानकार उनकी लाश पेड़ से टंगवा दिया था। इसके अलावा चेतिया स्टेट के लक्ष्मी त्रिपाठी अंग्रेजों के पक्ष में सक्रिय थे। बताते है कि वह भी काफी जुल्म करते थे।
बांसी राजपरिवार भी अंग्रेजों से सहानुभति रखता था। कहते हैं कि इन सबको सबक सिखाने के लिए सियारमरवा गिरोह बन कर कुछ स्थानीय क्रांतिकारी यहां आये थे। उन्होंने अष्टभुजा समेत कइयों को लूट कर प्राप्त धन सेनानियों को दिया। इसके अलावा कई बड़े कांग्रेसी नेताओं को जेल जाने से बचाया भी।
फटे चीथड़े पहन कर दिन भर कुत्तों के साथ नदियों के किनारे, खेतों और भीटों में भटकने वाला यह गिरोह, जिनके दम पर जनता को बड़ी राहत थी, अचानक एक दिन गायब हो गया। उनकी गुमशुदगी के बारे में कुछ ठोस तथ्य नहीं मिलते। पुस्तकों में केवल अनुमान किया गया है कि संभवतः उनकी अंग्रेज विरोधी कार्रवाइयों से परेशान होकर ब्रिटिश पुलिस ने पूरे गिरोह को पकड़ कर उन्हें मार दिया। इस विषय में इतिहास के जानकार प्रोफेसर कमालुद्दीन कहते हैं कि बलि सिंह बलिकरन सिंह गिरोह चाहे जहां का रहा हो, मगर उनके कृत्य और संभवतः उनकी शहादत स्मरणीय हैं। हम इन्हें भूलते जा रहे जो बहुत दुखद है।