महाराष्ट्रः ओवर कॉन्फिडेंस के चक्कर में फंस गई भाजपा, हो सकता है सियासी नुकसान
महेन्द्र यादव
दिल्ली।महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों से पहले भारतीय जनता पार्टी के नेता 200 से ज्यादा सीटें पाने का दावा कर रहे थे, और यह भी मानकर चल रहे थे कि उसकी सीटों में इतनी बढ़ोतरी जरूर हो जाएगी कि वह अकेले दम पर बहुमत पा लेगी। लोकसभा चुनावों में, और कई राज्यों के चुनावों में भाजपा जैसा कारनामा करती रही है, उसके हिसाब से उसका दावा बहुत अविश्वसनीय भी नहीं लग रहा था, लेकिन नतीजे आए तो पता चला कि भाजपा की सीटें 2014 की तुलना में काफी घट गई हैं।
चुनावों से पहले जो भाजपा के शीर्ष नेतृत्व में जो अति-आत्मविश्वास था, अब वही उलटा उसके गले पड़ रहा है। अकेले दम पर बहुमत पाने के विश्वास में उसने कई ऐसी गलतियां कर डालीं, जो अब उसे सरकार बनाने में बाधक बन रही हैं।
शिवसेना को दे बैठी थी फिफ्टी–फिफ्टी का आश्वासन
भाजपा को यह तो लग रहा था कि अगर शिवसेना से तालमेल न किया तो कहीं दोनों को नुकसान न हो जाए, इसलिए उसने हर हालत में शिवसेना के साथ गठबंधन करने का फैसला किया था। शिवसेना भाजपा के व्यवहार से लगातार नाराज रही है, इसलिए इस बार उसने फिफ्टी-फिफ्टी की शर्त रखी जिसमें ढाई-ढाई साल के मुख्यमंत्री पद का बंटवारा और अहम मंत्रालय शिवसेना को दिए जाने की शर्त रखी।
भाजपा चूंकि केवल चुनावों तक ही शिवसेना का साथ लेना चाहती थी, इसलिए खुद अमित शाह ने उद्धव ठाकरे से मुलाकात में इस तरह का आश्वासन दे दिया। बेशक देवेंद्र फड़नवीस ने पहले इस तरह के आश्वासन की बात नकारी हो, लेकिन बाद में उन्हें ये सच स्वीकारना पड़ ही गया। इससे ये बात तो तय है कि फिफ्टी-फिफ्टी का सौदा हुआ था। अमित शाह अब उद्धव ठाकरे का सामना करने से भी बच रहे हैं, जिससे भी साबित हो रहा है कि उन्होंने फिफ्टी-फिफ्टी के सौदे पर सहमति दी थी।
भाजपा की रणनीति यह थी कि अकेले 145 से ज्यादा सीटें पाने के बाद, वह शिवसेना की शर्तें मानने को मजबूर नहीं होगी, इसलिए उस समय उसे वादा करने में हिचक नहीं हुई। अब जबकि रिजल्ट में खुद भाजपा की ही सीटें 124 से कम होकर 105 तक गिर गई हैं, तो उसे शिवसेना का साथ लेना जरूरी हो गया है, और शिवसेना फिफ्टी-फिफ्टी पर अड़ गई है।
एनसीपी को नाराज करके फंसी भाजपा
भाजपा ने पिछली बार शिवसेना से अलग होकर विधानसभा चुनाव लड़ा था, लेकिन जब उसे पूरा बहुमत नहीं मिला और शिवसेना समर्थन के लिए शर्तें रखने लगी तो उसने एनसीपी से समर्थन लेने की कोशिश करके शिवसेना को मजबूर किया था कि वो भाजपा की जूनियर पार्टनर के रूप में सरकार में शामिल हो। उसे महत्वहीन विभाग भी दिए गए और सरकार का कामकाज ऐसा रहा कि शिवसेना के मंत्री किसी तरह से अपनी पहचान नहीं बना पाए।अब स्थिति शिवसेना के पक्ष में है। एनसीपी का समर्थन लेने की कोशिश इस बार भी भाजपा कर सकती थी, लेकिन यहां भी भाजपा नेतृत्व का आत्मविश्वास आड़े आ गया। दोबारा सरकार बनाने के आत्मविश्वास में डूबी भाजपा ने महाराष्ट्र के दिग्गज नेता शरद पवार पर ही हाथ डाल दिया। चुनावों के दौरान ही शरद पवार के खिलाफ ईडी ने केस दर्ज कर लिया। इतना ही नहीं, एनसीपी के दूसरे बड़े नेता प्रफुल्ल पटेल पर भी ईडी हाथ डाल चुकी है। इस तरह से एनसीपी के द्वार भाजपा ने खुद ही अपने लिए बंद तो किए ही साथ ही शरद पवार के अंदर इतनी ऊर्जा भी भर दी कि उन्होंने जमकर चुनाव प्रचार किया और भाजपा को घुटनों पर ला दिया। अब अगर किसी तरह से एनसीपी भाजपा का साथ देती भी है तो यही माना जाएगा कि वह ईडी से डर गई है। ऐसे में एनसीपी की छवि खराब हो सकती है।
भाजपा की ही चाल चल सकती है शिवसेना
जिस तरह से पिछली बार भाजपा ने शिवसेना का समर्थन लेने के लिए एनसीपी से पींगे बढ़ाकर दबाव बनाया था, उसी तरह का विकल्प इस बार शिवसेना के पास है। कांग्रेस और एनसीपी शिवसेना को ललचा रहे हैं कि वो भाजपा का साथ छोड़कर उनके साथ आ जाए तो आदित्य ठाकरे को मुख्यमंत्री पद मिल सकता है और सरकार में उनकी धाक तो रहेगी ही। शिवसेना ऐसा करती है तो उसकी भाजपा से अलग छवि तो बनेगी ही, साथ ही सरकार में मुख्यमंत्री पद पाकर वह अपने क्षीण होते जनाधार को फिर से पुख्ता कर सकती है।
दोबारा चुनाव में जाने में भाजपा को खतरा
अगर किसी तरह से भी सरकार नहीं बन पाती है तो फिर एकमात्र विकल्प राष्ट्रपति शासन और दोबारा चुनाव कराने का है। इसमें भाजपा को सबसे ज्यादा खतरा है क्योंकि जाहिर है, दोबारा चुनाव होने पर उसे शिवसेना से अलग होकर, अकेले ही चुनाव मैदान में जाना पड़ेगा। शिवसेना के साथ मिलकर लड़ने पर जब उसकी सीटें 124 से घटकर 105 हुई हैं तो अकेले लड़ने पर तो इनमें और ज्यादा गिरावट होने के आसार हैं।
उधर शिवसेना केवल उन्हीं सीटों पर जीती है जिनपर उसका बहुत ठोस जनाधार है। अगर अकेले लड़ने पर उसकी सीटों में गिरावट होती भी है तो थोड़ी-बहुत ही होगी। ऐसे में फायदा एनसीपी-कांग्रेस गठबंधन को ही होगा, लेकिन यह भी संभव है कि सीटें बढ़ाकर भी ये गठबंधन बहुमत के करीब न पहुंच पाए। तब उसे फिर से शिवसेना के साथ की जरूरत पड़ेगी ही, यानी शिवसेना की राजनीतिक ताकत में कमी नहीं आएगी।
कुल मिलाकर, शिवसेना तो ऐसे मुहाने पर खड़ी ही है कि भाजपा देर-सवेर उसे हड़प सकती है, लेकिन भाजपा ने गलती यह की कि उसने शिवसेना को हड़पने से पहले अति-आत्मविश्वास में पड़कर शिवसेना को सावधान कर दिया। अब सतर्क और पहले से चोट खाई शिवसेना से निपट पाना इसी कारण सेभाजपा के लिए मुश्किल हो रहा है।
( लेखक राजनरीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ पत्रकार हैं)