संवेदनहीन, बीमार और पागलपन की हद पार कर गयी हिंदी पत्रकारिता को जरूरत है वैचारिक हंटर की
पुलिस व प्रशासिनिक अफसरों की बताई बातें ही छापते हैं आज के नारद महराज़- आशीष मिश्र सीए
पहले नेताओं के खिलाफ लिखें, फिर गरीबों को कोरोना नियम सिखाएं पत्रकार बंधु- शाहरूख अहमद
नजीर मलिक
सिद्धार्थनगर। क्षेत्रीय स्तर के हिंदी समाचार पागलपन के शिकार और बीमार हो चुके हैं। उनकी पत्रकारिता की छूरी भी चलती है तो गरीब पर। धन बल और राजनीतिक ताकत वालों के लिए उनकी कलम गोदी मीडिया की रासोवादी तर्ज पर, बिलकुल चारण और भाट की तरह है। तो इन्हें अब वैचारिक करंट देने की जरूरतत आन पड़ी है। इसलिए इंसानियतपरस्त लोगों को इनके खिलाफ जनमत तैयार करना होगा।
ताजा खबर और पत्रकारिता का शर्मनाक पक्ष
सिद्धार्थनगर जिले के पिछले एक पखबारे के सभी प्रमुख समाचार पत्र उठा कर देखिए तो उनमें मिलेगा कि किस तरह ‘ई रिक्शा’ वाले चार की जगह पांच और सात की जगह 9 से 10 सवारियां बैठा कर कोरोना नियम का उल्लंघन कर रहे हैं। एक अखबार ने तो यहां तक लिख दिया कि सिद्धार्थनगर जिला मुख्यालय सहित बांसी, डुमरियागंज, इटवा, शोहरतगढ़ बढनी आदि उपनगरों में प्रतिदिन सुबह सैकड़ों दिहाड़ी मजदूर बिना मास्क लगा काम की तलाश मे खड़े रहते हैं। इससे कोरोना फैलने का खतरा होता है। मजे की बात है कि ऐसा लिखने वाले पत्रकार इतने जागरूक हैं कि वह स्वयं भी मास्क नहीं लगाते। हां, दिखाने के लिए जेब में रखते जरूर है।
दिहाडी वालों के खिलाफ लिखते हैं नेताओं अफसरों के नहीं
अब सवाल यह है कि ये चारण पत्रकार इन गरीबों का मास्क न लगाना तो देखते हैं मगर शहर में घूम रहे छोटे से बड़े नेताओं, चुनाव में घूमती उनकी गाड़ियों काफिले व जनसभाओं पर न तो नजर पडती है न ही उनके खिलाफ सीधे लिख पाने का साहस ही है। उन्हें तो बस अपनी पत्रकारिता का रौब दिखाने हेतु टार्गेट के रूप में कोई न कोई गरीब, कमजोर आदमी चाहिए।
यह उन टैंपों, रिक्शा, दिहाड़ी वाले मजदूरों की करूण कहानियां भी जानते हैं परन्तु उनकी उन कहानियों के खिलाफ लिखते इसलिए नहीं कि वे अपनी निराशा में अवसाद में पागलपन की ओर बढ़ रहे हैं। बता दें कि ये कथित पत्रकार स्टाफर सा कनफर्म रिपोर्टर नहीं होते, ऐसे में इन्हें महीने में वेतन के रूप में इतना भी नहीं मिलता, जितना एक दिहाड़ी मजदूर कमा लेता है। जिले में वर्तमान में कन्फर्म या स्टाफर के रूप में आधा दर्जन से भी कम पत्रकार होंगे।
बीमार पत्रकार वर्ग सब जानता है
इन बीमार और संवेदनहीन पत्रकारों का यह निर्लज्ज समूह भली भंति जानता है कि जिले के उपनगरों में जितने भी पैदल रिक्शा, ई रिक्शा या आटो चल रहे हैं उनमें अधिकांश गरीबों ने या तो लोन पर खरीदा है अथवा किसी धनाढ्य व्यक्ति से प्रतिदिन के हिसाब से भाड़े पर लिया है। जिसके लिए उन्हें 400 रूपये प्रतिदिन का भाड़ा देना पड़ता है। इतना कमाने के बाद जो बचता है वह उसके परिवार के लिए होता है। दिहाड़ी मजदूर तो बेचारा और बेबस है। वह दस किती. दूर गांव से चल कर शहर आता है और इस पर भी गांरंटी नहीं कि कोरोना काल में उसे मजदूरी मिल ही जाएगी।
चुनावी आचार संहित पर नहीं लिखते- आशीष मिश्रा, शाहरुख्
एक तरफ पत्रकार गरीबों के प्रति इतने आक्रामक हैं दूसरी तरफ क्षेत्र में रोज चुनावी आचार संहित टूट रही है, मगर ‘चंदबरदाइयों’ की यह जमात इनके खिलाफ नहीं लिख रही है। कारण समझा जा सकता है। रिक्शा वालों, दिहाड़ी मजदूरों के खिलाफ लिखने वाली तथाकथित पत्रकारों की यह जमात इतनी बेशर्म हो चुकी है कि वह आचार संहिता तोड़ने वाले चुनावी उम्मीदवारों की खबर छापने के बाद फोन कर कहते है कि- ‘सर, आपकी खबर अच्छे से छप गई है।’ यह तो अमानवीयता और रासाद की पराकाष्ठा है। ऐसे पत्रकार या तो बीमर मानसिकता वाले हैं अथवा चन्द्रबरादाई का लेखकीय गुण धर्म को मानते व प्रतिनिधित्व करते हैं। जबकि असली पत्रकारिता यह होनी चाहिए थी कि यह चारण लोग पहले इन दिहाड़ी मजदूरों और गरीबों के भोजन के लिए शासन से मांग की आवाज उठाते और उनके राशन की व्यवस्था के बाद उन पर एक रिक्शा में दो सवारी बिठाने पर आवाज उठाते।
इस स्थिति पर जिले के चार्टर्ड एकाउंटटेंट आशीष मिश्र कहते हैं कि खेती के लिए भारत-नेपाल सीमा पर एक बोरी खाद लाते ले जाते पकड़े जाने पर ये आज के नारद पत्रकार उसे बेचारे किसान को तस्कर लिखते हैं। मगर जब पुलिस चोरी डकैती, आदि की घटना में पुलिस किसी निर्दोष को फर्जी फंसा देती है तो यही पत्रकार सब कुछ जानते हुए भी निर्दोष के पक्ष में नहीं लिखते। वह वही बात अखबारों में रिपोर्ट करते हैं जो पुलिस उन्हें बताती है। जबकि समाजसेवी शाहरूख अहमद कहते हैं कि जिले के एक मंत्री बाइक के कारवां के साथ पंचायत चुनाव में जिले में जुलूस निकालते हैं मगर ये पत्तलकार चुप रहते हैं। ऐसे में समझ लेना चाहिए कि अब पत्रकारिता चाटुकारिता का स्थान ले चुकी है।