साझी विरासतः जिगना धाम मेले में टूट जाती हैं मजहबी दीवारें
हमीद खान
सिद्धार्थनगर। शायद जिगनाधाम पूर्वांचल का पहला और अनूठा मंदिर है। जहंा पहुंचकर कोई व्यक्ति न हिन्दू रह जाता है और न ही मुसलमान। शुरु से लेकर आज तक हवन से लेकर अन्य सामग्रियों को दोनों वर्गों के लोग मिल जुल कर इकट्ठा करते हैं।
मेले में याेगदान की यह साझी भावना कहां से पैदा हुई, इसकी प्रमाणिक जानकारी तो किसी के पास नहीं है। लेकिन अनुमान है कि यह अलाउदृदीन खिलजी के जमाने से शुरू हुई है।
बताया जाता है कि सैकड़ों साल पहले इस मंदिर की व्यवस्था के लिए बादशाह अलाउदृदीन खिलजी ने जागीर बख्शी थी। समझा जाता है कि इसी घटना के बाद यहा सामूहिक योगदान की परम्परा शुरू हुई, जो अब तक कायम है।
सदियों से लगते आ रहे जिगना धाम मेले में श्रद्धालुओं का तांता लग रहा है। लोग मंदिर पर मत्था टेककर प्रसाद ग्रहण कर रहे हैं। तो किया तो हजारों लोग इस पावन स्थल पर बच्चों के मुन्डन करा रहे हैं।
विदित हो कि इटवा तहसील मुख्यालय से लगभग से तेरह किमी0 दूर उत्तरी छोर पर स्थित जिगिनाधाम के इस मंदिर में लक्ष्मीनारायण भगवान का एक प्राचीन मंदिर है। जिस पर प्रत्येक वर्ष अगहन मास के शुक्ल पक्ष तिथि पंचमी को राम विवाह के अवसर एक सप्ताह का मेला लगता है।
मेले में कानपुर दिल्ली, लख्नऊ आदि शहरों से कई दुकानें आती हैं। दुकानें इस बार भी आयी हुई हैं। मनोरंजन के भी सारे साधन यहां मौजूद हैं। मौत के कएं में दो कारों का एक साथ दौडना लोगों के आकर्षण का केन्द्र बना हुआ है।