छत्तीसगढ़़ः खामोशी से रिकार्ड मतदान, फिर भी सन्नाटे की चादर
छत्तीसगढ़ से वरिष्ठ पत्रकार कमलेश कमलेश पांडेय की रिपोर्ट
यह छत्तीसगढ़ है। अनोखे मूड-मिजाज का राज्य। उत्तर से दक्षिण तक पांच राज्यों से सटी सीमाएं। हर जगह का अलग भूगोल। अलग बोली, अलग भाषा और अलग-अलग परंपराएं। जंगल और पहाड़ के क्षेत्रों में आदिवासी समुदाय की बाहुल्यता। खांटी मैदान में उतरें तो मिनी भारत का नजारा। हर प्रदेश से आकर बसे लोग मिलेंगे। सवाल चुनाव पर करिये तो ना मुद्दे बताएंगे और न ही अपनी पसंद-नापसंद। सन्नााटा, खामोशी और चुप्पी की धुंध छंटने के बजाए गहराती जा रही।
मतदाताओं की चुप्पी से सियासी पुरोधा हैरान
राजनीतिक दल इसी बात से हैरान-परेशान हैं। किसी पट्टी से परिवर्तन की बात उठती है तो कहीं रमन की वापसी के समर्थक दिखते हैं। एक चरण का चुनाव निपट चुका है। दूसरे चरण में स्टार प्रचारकों की रेलमठेल है। एयर ट्रैफिक रोज जाम हो रहा। हेलीकॉप्टरों को खड़ा करने की जगह भी आसानी से नहीं मिल रही लेकिन धरातल पर चुनाव फिर भी नजर नहीं आता। किसान खेत में हैं। व्यापारी मंदी व जीएसटी में उलझा है और मध्यम वर्ग अजब कसमकस की स्थिति में है। पेशागत कारणों से कई राज्यों में चुनाव का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष चश्मदीद रहा हूं। बनते-बिगड़ते समीकरणों का मूक गवाह भी, लेकिन ऐसी खामोशी पहले कभी नहीं देखी।
धमाके होते रहे, वोट पड़ते रहे
नक्सलगढ़ की 18 सीटों पर रिकार्ड मतदान हुआ। इस बार हुई पोलिंग से महज तीन फीसद कम पिछले चुनाव में मतदान का आंकडा था। पिछली बार इन 18 सीटों में 12 पर कांग्रेस और 4 पर भाजपा काबिज हुई थी। इस बार भी नक्सलियों ने चुनाव बहिष्कार की धमकी दी थी। धमाके होते रहे, वोट पड़ते रहे। पर किसको? भाजपा और कांग्रेस के लिए अबूझ। कांग्रेस को लगता है कि नक्सलगढ़ ने कायम रखी है उसकी बढ़त। भाजपा को भरोसा है कि नक्सल पट्टी के अधिकांश विधायक कांग्रेस के हैं तो उनके प्रति नाराजगी का लाभ मिलेगा। विकास कार्यों का लाभ बोनस होगा।
अब दूसरे चरण में 72 सीटों पर 20 नवंबर को मतदान होना है लेकिन अब तक के मुद्दे परिदृश्य से ओझल हो चुके हैं। भाजपा-कांग्रेस दोनों की सीडी, सीबीआइ और सरकार के मुफ्त मोबाइल वितरण जैसे मुद्दों की हवा बन ही नहीं पाई। न कांग्रेस अपने मुद्दों को हवा दे पाई न भाजपा। नक्सलवाद पर शुरू बहस भी अब बंद है। जाहिर है चुनाव मैदानी इलाकों में होना है। हां एक बाद जरूर दिखने लगी है। किसान अभी धान बेचने के मूड में नहीं। जबकि सरकार बोनस भी दे रही है।
मैदानी फैसला अजीत जोगी- मायावती पर निर्भर
किसान को कर्ज की राशि बोनस से कट जाने का भय न जाने किस हवा का नतीजा है। एक ही चेहरे देखते रहने से ऊब जाने जैसी बातें भी हैं लेकिन अब मैदानी मुकाबला अजीत जोगी और बसपा पर निर्भर है। जोगी अभी तक कांग्रेस के सिपाही रहे हैं। पहली बाद खुद के बूते और बसपा के साथ उन्हें अपनी ताकत आजमानी है। बसपा का करीब 10 सीटों पर प्रभाव है। एक दो विधायक जीतते भी रहे हैं। भाजपा की बड़ी उम्मीद जोगी के बढ़ने पर टिकी है। पर नुकसान सिर्फ कांग्रेस को होगा, यह बात खुद भाजपा के रणनीतिकार भी हजम नहीं कर पा रहे। वजह यह कि आरक्षित आठ सीटों पर भाजपा ही काबिज है।
23 सीटों पर सतनामी रुख क्या होगा
सतनामी समाज(दलित समुदाय के धर्मगुरु के अनुयायी) का प्रभाव 23 सीटों पर है। भाजपा के करीबी रहे सतनामी समाज के धर्मगुरु ने सतनाम सेना के एक दर्जन उम्मीदवार पिछले चुनाव में उतारे थे। हेलीकॉप्टर से प्रचार किया था। हेलीकॉटर का खर्च भाजपा द्वारा उठाए जाने की बातें सही भी हैं। इनमें अधिकांश सीटों पर मामूली अंतर से भाजपा जीतने में कामयाब रही थी। सतनाम सेना के प्रत्याशियों ने मोटा वोट हथिया लिया था। यह दांव इस बार भाजपा के लिए उलट गया है। सतनामी गुरु कांग्रेस का प्रचार कर रहे। एक धर्मगुरु खुद चुनाव लड़ रहे। अब इस पट्टी का रुख क्या होगा? भाजपा और कांग्रेस की निगाह इधर भी टिकी है।