“जूता कांड” के चलते पूर्वी उत्तर प्रदेश पर नया खतरा मंडराया. मौके की तलाश में सियासी गिद्ध

March 7, 2019 4:04 PM0 commentsViews: 2502
Share news

 

— 1980-90 के दशक में हिंसा और जातीय तनाव से झुलस गया था गोरखुपर परिक्षे़त्र

 

नजीर मलिक

विधायक रवीन्द्र सिंह की हत्या से पहले की दुर्लभ तस्वीर

सिद्धार्थनगर। संतकबीरनगर के भाजपा सांसद शरद चंद त्रिपाठी और उन्हीं की पार्टी के विधायक राकेश सिंह बघेल के बीच बुधवार को हुई जूतों, लातों की मारपीट को सामान्य घटना मानना स्थिति को कम कर आंकना होगा। वर्षों पहले गोरखपुर परिक्षेत्र समेत पूर्वी उत्तर प्रदेश में दो समूहों के बीच चलने वाली गैगवार से जनमानस आतंकित रहता था और इस जंग में दर्जर्नों बड़ी हस्तियों को अपनी जान गंवानी पड़ी थी। मौजूदा घटना के बाद उसकी यादें ताजा हो गईं हैं और फिर सवाल उठ रहा है कि गोरखपुर में ब्राह्मण ठाकुर के संघर्ष की पुनरावृत्ति तो नहीं होने जा रही है?

क्या है संतकबीरनगर जिले का जूता कांड

बुधवार को संतकबीरनगर जनपद में निगरानी समिति की बैठक में भाजपा सांसद शरद त्रिपाठी और विधायक राकेश सिंह शिपट्ट पर नाम न होने के मुद्दे पर भिड़ गये। घटना की वायरल विडियों में सांसद शरद विधायक बघेल को जूते से पीटते और बघेल मननाये  सांसद को  थप्पड़ों से मारते दिखाई दिये। इस घटना के बाद घरना प्रदर्शन का दौर चला। दोनों नेता लखनऊ तलब कर लिये गये हैं, लेकिन यहां चिंगारी तो भड़क ही चुकी है।

सोशल मीडिया और जनता के बीच में उस झगड़े में एक नया एंगिल देखने को मिल रहा है। लोग इसे डाकुर बनाम ब्राहमण के मान सम्मन से जोड़ने में लग गये हैं। सोशल मीडिया की टिप्पणियों में अनेक लोग जाति के आधार पर सांसद व विधायक के पक्ष- विपक्ष में खड़े होने लगे हैं। कोई इसे ब्राहमण अस्तिा े जोड़ रहा है तो कोई इसे राजपूती आनबान पर हमला बता रहा है। लोग जातीय आधार पर बंट रहे हैं।

क्या हुआ था 80-90 के दशक में? कैसे चला था हत्याओं का दौर

70 के दशक के खात्मे के बाद गोरखपुर में ब्राह्मण ठाकुर संघर्ष का दौर शुरु हुआ था। 1972-73 में गोरखपुर विश्वविद्यालय में ब्राहमण और ठाकुरों के गुट बन चुके थे। इसमें अध्यापक और छात्र शामिल थे। पुराने लोग जानते हैं कि  दोनों गुटों में से एक को उस समय के एक शक्तिशाली व पूर्व अफसरशाह व दूसरे को एक मठाधीश का संरक्षण प्राप्त था। बाद में दोनों गुट तिवारी़-शाही गुट के रूप में प्रसिद्ध हुए।

बताते हैं कि उन्हीं के बल पर गोरखपुर, बस्ती, देवरिया, बनारस, गोंडा, फैजाबाद गाजीपुर आदि जिलों में ब्राह्मणों और राजपूतों के गीत एक दूसरे पर हमले कर अपनी जाति का वर्चस्व कायम करने लग गए थे।  किस गुट का कौन नेता कब मार दिया जाए, कोई पता ना था। बीबीसी ने उस समय गोरखपुर कि तुलना विश्व के सबसे हिंसाग्रस्त शहर शिकागो से कि थी।

जातीय संघर्ष ने ली थी एक हजार युवाओं की जान

ये गुटीय लड़ाई 1979 में जातीय अस्मिता की खुली लड़ाई में तब्दील हो गई।  30 अगस्त 1979 को विधायक रवीन्द्र सिंह को रेलवे स्टेशन गोरखपुर के प्लेटफार्म पर सरे शाम गोलियों से भून दिया गया। यह उस समय के लिहाज से बहुत बड़ी घटना थी। रवीन्द्र सिंह उस समय देश के बड़े छात्र नेता थे। वे गोरखपुर और लखनऊ विश्वविद्यालयों के अध्यक्ष रह चुके थे।  वे पूर्वांचल के युवाओं के रोल माडल बन चुके थे।

इसके बाद विश्वविद्यालय के छात्र नेता रंगनारायन पांडेय, मृत्युंजय चौबे, बलवंत सिंह, रामदास सिंह, सत्य प्रकाश दुबे,  आदि सैकड़ों उदीयमान ब्राह्मण/ राजपूत युवाओं की हत्या हुई। एक दशक में इस जातीय संघर्ष में पूर्वी उत्तर प्रदेश के बीस जिलों में लगभग हजार युवा मारे गये। उनमें अनेक तो अत्यंत ही मेधीवी थे। कई तो पूरी तरह से जातीय झगड़े के भागीदार भी नहीं थे। आखिर में ठाकुर गुट के नेता व पूर्व विधायक वीरेन्द्र प्रताप शाही की हत्या के बाद ही इस हिंसा पर पूरी तरह से विराम लग सका।

फिर मंडराने लगे हैं जातीय गिद्ध

संतकबीरनगर की घटना के बाद वहीं खतरा फिर मंडराने लगा है। सियासी आसमान में मंडराते गिद्धों की फड़फडाहट साफ महसूस हो रही है। हो सकता है कि इस बार बंदूकी गोलियों की जगह सियासी बोलियां आगे हो जायें, मगर खतरा तो दिख ही रहा है। अगर सियासी युद्ध हुआ तो ब्रहमण और राजपूत एक साथ मिल कर वोट पोल करेंगे, इसमें संदेह है। इसके परिणाम खतरनाक होंगे। अगर यह सवाल बंदूक के बल पर हल करने की कोशिश हुई तो परिणाम और भी भयंकर होंगे और उके जिम्मेदार होंगे पूर्ाने सियासी गिद्धों के वंशज, जो आज सियासत के लिए वोटों का खूनी खेल खलने में लगे हैं।

Leave a Reply