सिद्धार्थनगर की सियासत में ‘न पंडत न काजी, इक बाबा, इक हाजी’
–––सिद्धार्थनगर की डायरी
कबीरा
“अपनी बुद्ध भूमि यानी सिद्धार्थनगर में एक शेर बहुत मशहूर हो रहा है ‘ न मंदिर न मस्जिद, न पंडत न काजी– सिद्धार्थनगर की राजनीति में, इक बाबा इक हाजी।’ शेर सही भी लगता है। वाकई सिद्धार्थनगर की राजनीति में बाबा जी और हाजी सहब की जोड़ी ने सियासत का धर्म और ईमान बदल दिया है। अपनी महंथी और पीरी मुरीदी चलाने के लिए इन्हें कोई भी चाल चलने की पूरी आजादी है।”
वर्षों तक जाति और धर्म के नाम पर सियासी दुकान चलाने वाले आज कल एक ही कार में बैठ कर धर्मनिरपेक्षता के श्लोक और आयत बांच रहे हैं। जिनकी सियासी लड़ाई में हजारों लोग अपने बाबा जी और हाजी साहब के लिए तबाह हो गये, वो अपने मुरीदों को भूल कर आज सत्ता की मलाई के लिए एकजुट हैं। इनके कुर्बानी स्थलों पर कमाल यूसुफ से लगायत उग्रसेन सिंह तक मुर्गे की मानिंद हलाल कर दिये गये, तो तुम्हारे जैसे भूखे नंगे वोटरों की बिसात क्या हैं?
हाजी साहब बड़े मासूम हैं
हाजी साहब बड़े मासूम हैं। एक बार बाबा जी पहले भी उनको गले लगा कर गरदन काट चुके हैं। हाजी साहब ने उससे भी सबक न लिया, लेकिन ऐ वोटरों तुम तो सबक ले लो। कब तक हाजी बाबा की सियासत में तुम अपना कचूमर निकलवाते रहोगे। लगता है तुम तो उनसे भी मासूम हो, हाजी जी असेम्बली में कल्यान सिंह को वोट देकर भी आपके इमाम बने हुए हैं, तो अब तुम भाड़ में जाओ। तुम्हारी हिफाजत तो खुदा भी नहीं कर सकता।
हाजी साहब भूल गये शायद
हाजी साहब की याददाश्त कमजोर है शायद। यह बाबा जी ही थे, जिन्होंने खुनियाव ब्लाक में हाजी साहब के बेटे की पीरी खतम की थी। सिर्फ बेटों की ही क्यों, बाबा जी ने पांच ब्लाकों से मुसलमानों की कयादत खत्म कर डाली थी। तब हाजी जी को इस्लामिक गम सताता था और आज उसी बाबा के हाथों हाजी साहब इस्लाम को गिरवी रख रहे हैं।
और अन्त में
आखिर में इटवा के वोटरों को जगाता हुआ एक शेर–––
साथ देना है तो तलवार उठा मेरी तरह
मुझसे बुजदिल की हिमायत नहीं होने वाली
अपना काबा अपने हाथों से बचाना होगा
अब अबाबीलों की लश्कर नहीं आने वाली
– कबीरा