जंगे आजादी की महान वीरांगना बेगम हजरत महल की मजार को अकीदत के चंद फूल भी नसीब नहीं
सगीर ए खाकसार
(काठमाण्डू से लौटकर)
देश के लिए मर मिटने वाले सभी शहीदों की किस्मत शायद एक जैसी नहीं होती है।कुछ शहीद अनजाने होते हैं,जिन्हें हम जानते तक नहीं, और कुछ जिन्हें हम जानते तो हैं लेकिन उन्हें भुला देते हैं।कुछ शहीद ऐसे भी होते हैं जिनकी मज़ारों पर न तो मेले लगते हैं और न ही चरागां होता है।वतन पर मर मिटने वाले ऐसे शहीदों का कोई बाकी निशाँ भी नहीं होता है नेपाल की राजधानी काठमांडू में ऐसी ही एक मजार जंगे आजादी की महान वीरांगना बेगम हजरत महल की भी है। आज उस मजार की हालत यह है कि उस पर अकीदत के चंद फूल चढाने वाला भी कोई नहीं है।
पहली जंगे आजादी के दौर की ऐसी ही एक वीरांगना थीं बेगम हजरत महल।देश के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम 1857 की महान क्रांति में उन्होंने अंग्रेजों से मोर्चा लिया था,और अंत तक लड़तीं रहीं। लेकिन अंग्रेजों के सामने कभी घुटने नहीं टेके और न ही अपना सिर झुकाया।वो चाहतीं तो लाखों रुपये की पेंशन और अपना महल वापस लेकर बाकी ज़िन्दगी आराम से गुज़ार सकतीं थीं।लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया।
मैं इसी साल के पहले महीने जनवरी में नेपाल की राजधानी काठमाण्डू गया था।यहीं पर बेगम हजरत महल की मजार स्थित है।काठमाण्डू के दरबार मार्ग स्थित बाग बाजार का यह इलाका बहुत ही ब्यस्त है।महल काठमाण्डू के बिल्कुल मध्य में है।यहीं सुप्रसिद्ध जामा मस्जिद भी है इसी परिसर के एक कोने में बेगम हजरत महल की मजार है।अगर आपको पहले से मालूम न हो या कोई आपको बताए न तो आसानी से 1857 की महान क्रांति की इस नायिका के मज़ार का अंदाज़ा भी नहीं लगा सकते । बताते हैं पहले ये और भी उपेक्षित था।बाद में इसे जामा मस्जिद की सेंट्रल समिति की निगरानी में रखा गया।भारत नेपाल के बीच सदियों पुरानी सम्बन्धों की प्रतीक बेगम हजरत महल के बारे में जानने की मेरी जिज्ञासा बढ़ गयी।
बहुत खोजबीन करने पर पता चला कि 07 अप्रैल को 2016 को उनकी 137 वीं पुण्यतिथि पर नेपाल में भारत के तत्कालीन राजदूत रंजीत रे ने सुध ली थी।उन्होंने ने उनकी मज़ार पर अकीदत के फूल चढ़ाए थे और आवश्यक सहायता मुहैया कराने का आश्वासन भी दिया था।बेगम हजरत महल का जीवन कठिन संघर्षों में गुजरा ।बताते हैं नेपाल में बिताए उनकी ज़िंदगी आखिरी लम्हे कुछ ज़्यादा ही दुखदायी रहे।जीवन बहुत अभावों और दुखों से भरा रहा।अवध की आन,बान, और शान बेगम हजरत महल एक महान क्रांतिकारी के साथ साथ एक रणनीतिकार और कुशल शासिका भी थीं।उनका जन्म उत्तर प्रदेश के फैज़ाबाद में हुआ था।नवाब वाजिद अली शाह से शादी के बाद उन्हें “हज़रत महल “के लक़ब से नवाजा गया।
1856 में अंग्रेजों ने जब अवध को हड़प लिया तो उन्होंने अंग्रेजों से खूब लड़ाइयां लड़ी।लेकिन जीत नहीं पायीं। अन्ततः उन्हें नेपाल में शरण लेनी पड़ी।15 अगस्त 1962 को पुराने विक्टोरिया पार्क ,हज़रत गंज लखनऊ में आज़ादी की पहली लड़ाई में उनके महत्वपूर्ण योगदान के लिए उन्हें सम्मनित किया गया था।उन्हीं के नाम पर बेगम हजरत महल पार्क का नाम रखा गया। 1857 की क्रांति से नेपाल के तार भी जुड़े हुए हैं।
इस महान क्रांति में बेगम हजरत महल के तमाम मददगार नेपाल की तराई से योजनाएं बनाते थे और अंग्रेजों से मोर्चा लेते थे।1857 की क्रांति में नेपाल के तराई वासियों ने भी अपनी महती भूमिका निभाई थी।जिन्हें हम सब मधेशी के नाम से जानते हैं।नेपाल में मधेशी भारतीय मूल के नेपाली नागरिकों को कहा जाता है जिनके पूर्वजों के तार भारत से जुड़े हुए हैं।सीमित संसाधन और प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद तराई का यह समूचा भूभाग 1857 की महान क्रांति में शामिल था।बहुत से क्रांतिकारियों ने इसी इलाके में गुमनाम शहादत पाई।बहुत से लोग लापता भी हो गए।
नेपाल राज्य परिषद के पूर्व सदस्य और नेपाली कांग्रेस के वयोवृद्ध नेता डॉ रुद्र प्रताप शाह कहते हैं कि नेपाली सेना और पटियाली फौजों के अवध पहुंचने की वजह से लड़ाई जल्दी खत्म हो गयी।राणा ने अंग्रेजों का साथ दिया और अवध की लूट में भागीदार भी बने।श्री शाह कहते है अगर राणा ने अंग्रेजों का साथ न दिया होता तो बेगम हजरत महल और उनके तमाम सहयोगी अंग्रेजों को धूल चटा देते।
नेपाल में सत्तारूढ़ वाम गठबंधन के वरिष्ठ नेता सेराज अहमद फारूकी कहते हैं और नेपाल के तराई के लोगों ने 1857 से लेकर 1947 तक अंग्रेजों के खिलाफ हुई लड़ाई में स्वतन्त्रता सेनानियों के साथ दिया।जिसमें समूचा उत्तर प्रदेश और विहार का इलाका भी शामिल था। बेगम हजरत महल के साथ अधिकतर किसान और मजदूर थे।नेपाल मामलों के और इतिहास के जानकार वरिष्ठ पत्रकार एन. मलिक कहते हैं ,बेगम हजरत महल का भारतीय सीमा में ऐतिहासिक आखिरी पड़ाव बहराइच का बोड़ी किला माना जाता है । आखिर में अंग्रेजों ने इस किले को उड़ा दिया।
बहरहाल जुलाई 1858 में नेपाल के तराई में बेगम हजरत महल जा पहुंचीं। 28 मार्च 1859 को बेगम हजरत महल,उनके पुत्र बिरजिस, तथा नाना साहेब भारतीय सीमा बढ़नी बॉर्डर से करीब 85 किमी की दूरी पर स्थित बुटवल शहर में थे ।
1859 तक नेपाल के तराई से इन क्रांतिकारियों ने अपनी लड़ाई जारी रखा।तरह तरह की मुसीबतें उठायीं लेकिन अंग्रेजों के किसी प्रलोभन में नहीं आये।बेगम हजरत महल ने एक लाख रुपये महीने की पेंशन और लखनऊ में महल के प्रस्ताव को ठुकरा दिया और अपनी लड़ाई जारी रखी। कहते हैं कि बेगम हजरत महल के पुत्र बिरजीस की तमाम जद्दोजहद के बाद राणा ने शरण तो देदी लेकिन उनका जीवन बहुत ही अभाव में गुजरा।बेगम हजरत महल को राणा द्वारा नेपाल में शरण देने के सवाल पर श्री मलिक कहते हैं कि शरण देने के पीछे भी राणा का लालच था।07 अप्रेल 1879 को उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया।