EXCLUSIVE: दैनिक जागरण, अमर उजाला और हिन्दुस्तान सरीखे अख़बारों के पाठक हर दिन लाखों की ठगी का शिकार
नज़ीर मलिक
“अख़बार पर भरोसा कभी-भी आपको लाखों रुपए का झटका दे सकता है। ठगी का शिकार होने पर आप थानों का चक्कर लगाएं या फिर अख़बारी दफ़्तर में गिड़गिड़ाते रहें, मदद के लिए कोई आगे नहीं आता। सिद्धार्थनगर ज़िले में भी कई अख़बारी पाठकों का लाखों रुपया इसी तरह भेंट चढ़ चुका है। अख़बार को हथियार बनाकर ठगी करने वाले ऐसे ही एक रैकेट के बारे में कपिलवस्तु पोस्ट की विशेष रिपोर्ट।”
कैसे काम करता है यह रैकेट?
हिंदी के सभी छोटे-बड़े अख़बार हर दिन क्लासिफाइड विज्ञापन छापते हैं। इनमें कई विज्ञापनों में मोबाइल टावर लगवाने का ऑफर होता है। दावा किया जाता है कि अपनी ज़मीन पर मोबाइल टावर लगवाएं और हर महीने लाख रुपए से ऊपर कमाएं। विज्ञापन में यह भी कहा जाता है कि उन्हें सरकार से स्वीकृति मिली है। इन विज्ञापनों के नीचे संपर्क करने के लिए कुछ मोबाइल नंबर दिए होते हैं। चूंकि ये विज्ञापन दैनिक जागरण, अमर उजाला और हिन्दुस्तान जैसे बड़े अख़बारों में छपते हैं, लिहाज़ा पाठक फौरन इनके दिए नंबरों पर फोन लगा देता है और यहीं से ठगी का खेल शुरू होता है।
कैसे होती है ठगी?
दिए गए नंबरों पर अख़बार का पाठक फोन लगाता है। उसे बताया जाता है कि उसकी बात दिल्ली के किसी बड़े अधिकारी से हो रही है। पाठक उसपर यक़ीन कर लेता है। मगर कहानी इसके उलट होती है। मोबाइल पर बोलने वाला शख़्स ठग होता है। वह पाठक से टावर लगवाने के लिए शुरुआती फीस 1500 से 2000 हज़ार रुपए अपने अकाउंट में जमा करवाता है। फिर ख़ुद फोन करके बताता है कि उसका आवेदन मंत्रालय में भेज दिया गया है और 20 से 50 हज़ार रुपए की डिमांड करता है।
इस तरह कई किस्तों में लाखों रुपए अपने अकाउंट में जमा करवाने के बाद वह ठग मोबाइल फोन स्विच ऑफ करके फरार हो जाता है। स्टेशन रोड स्थित ओम जायसवाल के बेटे बताते हैं कि वह भी इस रैकेट के चक्कर में फंस गए थे लेकिन कुछ रकम जमा करते ही वह सतर्क हो गए और मेरी बड़ी रकम लुटने से बच गई। एक अनुमान के मुताबिक ये ठग लखनऊ, पटना, दिल्ली जैसे बड़े शहरों में रहकर यह रैकेट चलाते हैं और हर दिन सैकड़ों पाठक इनका शिकार बनते हैं।
अख़बारी सड़ांध
कमोबेश सभी अख़बारों के दफ़्तर में विज्ञापन लाने के लिए भारी-भरकम कर्मियों की भर्ती और एजेंसियों की मदद ली जाती है। मगर प्रबंधन ऐसे किसी शख्स की नियुक्ति नहीं करता जो अख़बार में छपने वाले विज्ञापनों की सत्यता जांचें। वजह यह होती है कि सत्यता जांचने पर फर्ज़ी विज्ञापनों में कमी आएगी जो सीधे-सीधे अख़बार के मुनाफ़े पर चोट होगी। अख़बार कभी नहीं चाहेगा कि उसे विज्ञापनों के ज़रिए होने वाली आय में किसी तरह की कमी आए। दुख की बात यह है कि इन्हीं अख़बारों में छप रहे विज्ञापनों की वजह से उसके पाठकों की पूंजी लुट जाती है लेकिन प्रबंधनों को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।
दैनिक जागरण और अमर उजाला में 22 अगस्त को छपे फर्ज़ी विज्ञापन
कानूनी कार्रवाई का कोई विकल्प?
अख़बार प्रबंधन किसी भी मुसीबत से बचने की सारी तरकीब जानते हैं। क्लासिफाइड के जिन पन्नों पर ठगी के विज्ञापन छपे होते हैं, उन्हीं पन्नों पर मामूली अक्षर में नियम व शर्तें लागू करके लिखा होता है। ठगी का शिकार हो चुके पाठक को पूछताछ करने पर बताया जाता है कि क्लासिफाइड विज्ञापनों के सही या ग़लत होनी की गारंटी अख़बार नहीं लेता। ऐसी सूरत में अख़बार के विज्ञापनों पर भरोसा करके ठगी के जाल में फंसने वाला व्यक्ति किसी कानूनी अधिकार का इस्तेमाल लगभग भी नहीं कर पाता।