इतिहासः डुमरियागंज से कांग्रेस व भाजपा को 7-7 बार मिली विजय, सपा दो व बसपा एक बार जीती
नजीर मलिक
सिद्धार्थनगर। “यूपी के द्धिथनगर की डुमरियागंज संसदीय सीट पर आजादी के बाद से अब तक 16 बार हुए चुनावों में 7 बार कांग्रेस और 7 ही बार भाजपा को जीत मिली है। इसके अलावा यहां से दो बार समाजवादी व एक बार बसपाई भी जीत का स्वाद चख चुके हैं। इस बार यह देखना दिलच़स्प होगा कि बाजी किसके हाथ लगती है। हालांकि राम मंदिर आंदोलन के अलावा अन्य अवसरों पर सीधी लड़ाई में अक्सर भाजपा के खाते में हार ही आई है।” लेकिन इस बार राजनीतिक हालात और समीकरण दोनों अलग हैं। इसलिए इस बार चुनाव के दिलचस्प होने की उम्मीद बढ़ गई है।
कृपाशंकर चुने गये थे डुमरियागंज के प्रथम सांसद
लोकसभा का पहला आम चुनाव सन 1952 में हुआ था तब कृपाशंकर यहां से प्रथम कांग्रेसी सांसद बने थे। इसके बाद वर्ष 1957 के चुनाव में कांग्रेस से राम शंकर व 62 में कांग्रेस के पुनः कृपा शंकर विजेता बने। यह दोनों ही नेता स्वाधीनता आंदोलन की उपज थे, हालांकि वह क्षेत्रीय नेता नहीं थे और बाहर से आये, मगर तब आजादी का इतिहास सामने था और उस समय उम्मीदवार कोई भी हो, कांग्रेस विरोध का कोई अर्थ नहीं था।
आखिर भाजपा ने 1967 खोल ही लिया खाता
आजादी के बाद के तीन चुनावों में कांग्रेस के समक्ष् केवल भाजपा यानी तत्कालीन जनसंघ केवल सांकेतिक रूप से चुनाव लडी। वह तीनों चुनाव जीत तो नहीं पायी, लेकिन अपनी शक्ति बढाती रही। आखिर 1967 में हालात बदले। जनसंघ ने सहारनपुर जनपद के निवासी और लंदन में वकालत कर रहे “बार एट ला” नारायण स्वरूप शर्मा को टिकट दिया और वे चुनाव जीत गये। हालांकि उनके मुकाबले केशव देव मालवीय जैसे धाकड़ कांग्रेसी उम्मीदवार थे। वह भी बाहर से लाये गये थे, लेकिन उन्हें गैर कांग्रेसी वोटों मसलन समाजवादियों व जनसंघियों के गठजोड़ के कारण हारना पड़ा। लेकिन सरकार कांग्रेस की ही बनी।
1971 में के.डी. मालवीय की वापसी।
67 में नारायण स्वरूप जीत के बाद कभी क्षे़त्र में नहीं आये। इससे जनता में नाराजी थी। उनका मुकाबला एक बार फिर केशव देव उर्फ के.डी. मालवीय से था। कांग्रेस की सरकार थी। उन्होंने कई विकास कार्य कराये, ऊपर से पाकिस्तान से युद्ध और बांग्लादेश के निर्माण के बाद देश में कांग्रेस और इंदिरा गांधी की लोकप्रियता का डंका बज रहा था। फलतः नारयण स्वरूप शर्मा की हार हुई और मालवीय भारी वोटों से जीते, लेकिन 1975 में देश में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्धारा आपातकाल लगा दिये जाने के कारण भारत में कांरेस विरोधी लहर थी। इस चुनाव में स्वय इंदिरा गांधी व उनके पुत्र संजय गांधी हार गये थे। लिहाजा मालवीय की हार पर ज्यादा ताज्जुब नहीं हुआ। इस चुनाव में उन्हें जनता पार्टी के माधव प्रसाद त्रिपाठी ने हराया, हालांकि वे जनसंघ्र घटक के थे। पहली बार कोई स्थानीय राजनीतिज्ञ यहां से सांसद बना।
1980 में स्व. अब्बासी की जीत से फिर लौटी कांग्रेस
जनता पार्टी ढाई सालों में ही आपस में लड़ कर तहस हो गई। 1980 में हुए संसदीय चुनाव में कांग्रेस ने डुमरियागंज के विधायक रहे पूर्व मंत्री काजी जलील अब्बासी पर दांव लगाया। काजी साहब ने भाजपा प्रदेश अध्यक्ष माधव प्रसाद त्रिपाठी को बडे अंतर से चुनाव हराया। फिर 1985 के चुनाव में भी स्व. काजी जलील अब्बासी ने भारी जीत हासिल की। राजनीतिक क्षेत्रों में स्व. अब्बासी का नाम आज भी बडे सम्मान के साथ लिया जाता है। वे स्वाधीनता संग्रम सेनानी और लेखक भी थे।
89 में मिली समाजवाद को पहली जीत
1989 में राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे। वह बोर्स प्रकरण में भ्रष्टाचार के आरोपों से धिरे हुए थे। इस दौरान भाजपा और समाजवादियों ने आपस में गठजोड़ कर मोर्च बना लिया था। इस चुनाव में पहली बार खांटी समाजवादी बृजभूषण तिवारी को टिकट मिला और वह कांग्रेस विरोधी लहर में आसानी से जीत गये। इसी के साथ स्व. अब्बासी के राजनीतिक कैरियर का अंत हो गया। इसी के साथ देश में जनता दल की सरकार बनी। यह देश की दूसरी गैर कांग्रसी सरकार थी।
भाजपा के रामपाल सिंह ने लगाई पहली हैट्रिक
1989 राम मंदिर का शैशव काल था। चुनाव बाद समाजवादियों और भाजपा में मतभेद हुआ, आडवानी का लालू यादव द्धारा रथ यात्रा रोकने पर विवाद हुआ हुआ। जनता दल की सरकार गिर गई। 1991 में हुए आम चुनाव में राम मंदिर लहर के चलते एक गैर राजनीतिक और पेशे से इंजीनियर राम पाल सिंह चुनाव जीत गये। फिर 1998 और 1999 के मध्यावधि चुनावों में उन्होंने दो लगातार जीत हासिल कर हैट्रिक बनाया। यह भाजपा का स्वर्ण काल माना जाता हैं। रामपाल सिंह अच्छे नेता माने जाते थे। बीच में 1996 के चुनाव में सपा के बृजभूषण तिवारी को जीत मिली।
पांच साल बाद फिॅर कांग्रेस लौटी, बसपा ने भी खाता खोला
2004 के चुनाव में कांग्रेस ने बस्ती निवासी कांग्रेस के नेता जगदम्बिका पाल को चुनाव लड़ाया। पाल की सियासी कद काठी बड़ी थी। लेकिन जिले के एक अन्य बडें कांग्रेसी मुहम्मद मुकीम ने कांग्रेस छोड़ बसपा के टिकट पर भाग्य आजमाया और चुनाव जीत गये। यह बसपा के गठन के 20 बाद मिली पहली जीत थी। इसके पांच साल बाद 2009 के चुनाव में कांग्रेस उम्मीदवार की हैसियत से जगदम्बिका पाल ने बसपा के मुकीम को पटखनी दे दी।
2014 के चुनाव में मौसम विशेषज्ञ की तरह हालात को भांप कर जगदम्बिका पाल ने भाजपा ज्वाइन कर ली और सांसद बन गये। 2019 के चुनाव में प्रधनमंत्री मोदी की चरम पर पहुंची लोकप्रियता पर सवार होकर उन्होंने बसपा के आफताब आलम को हरा कर पुनः जीत हासिल किया। अब 2024 का चुनाव सामने है । मगर सपा गठबंधन और 10 साल की इंकम्बेंसी ने भाजपा की चिंता बढ़ा दी रखी है। इस बार जगदम्बिका पाल के समने गठबंधन की तरफ से भाजपा के सामने सपा प्रत्याशी के रूप में किसी बड़े ब्राह्मण चेहरे के उतारने की संभावना हैं। ऐसे में टक्कर कड़ी होने की उम्मीद है। फिलहाल देखिए चुनावी ऊंट किस करवट बैठता है?