आधुनिकता में गुम हुआ सावन माह
संजीव श्रीवास्तव
“आधुनिक संगीत व चमक ने भारतीय लोक कला व संस्कृति को गुम कर दिया है। अब तो फिल्मी चकाचौंध के आगे सावन में पूरे महीने धूम मचाने वाली कजरी गीत लोगों के होंठ क्या जेहन से उतर गये हैं।”
सावन महीने का महत्व अब सिर्फ पुराने व बड़े बुजुर्गो के किस्से बनकर रह गये हैं। सावन के महत्व को लेकर फिल्मी गीत अब बिसार दिए गए हैं। कबड्डी, पेड़ों पर झूले व महिलाओं द्वारा झूला झूलते हुए गाया जाने वाला कजरी गीत अब तो शहर क्या कहें, गांव में देखने को नहीं मिल रहे हैं। एक दशक पहले जहां सावन शुरू होते ही गांव के सार्वजनिक जगहों पर झूले पड़ जाते थे कबड्डी शुरू हो जाता था और महिलाएं वियोग, विरह, के भावपूर्ण कजरी गीत गाती थीं, यह हर सुनने वाले के अर्न्तमन को झकझोर देता था।
इनसे जुड़कर हर कोई भरतीय लोक संस्कृति में रम जाता था। यही नहीं सड़क के किनारे धान की रोपाई निराई हल्के सावन के फुहारों के बीच महिलाओं द्वारा गा-गाकर किया जाता था जिसे राह चलता आदमी भी रूक-रूककर सुनता था और भारतीय संस्कृति में रम जाता था क्योंकि इन गीतों में प्यार विरह-वियोग व ममता की एक छाप होती थी।
ऐसा माना जाता है कि जब भगवान कृष्ण गोकुल से मथुरा चले गये तो गोपियों द्वारा उनके वियोग में इस तरह के गीत गाकर वेदना प्रकट की जाती थी। तभी से यह भारतीय संस्कृति का अंग बन गया। वर्तमान में थकाऊ व भाग-दौड़ वाले मानव जीवन में कजरी की परम्परा सी0डी0 प्लेयर तक ही सिमट गयी है। अब तो न गांव में सावन में कबड्डी का आयोजन होता है और न गांव में कदम के पेड़ों पर झूले दिखाई पड़ते है। विरह वियोग के भव वाले गांव की गलियों में अब कजरी गीत आधुनिकता की चकाचौंध में विलुप्त होने के कगार पर है।