नयी न्याय संहिता का एलान, तो क्या अब जनता को पुलिस से डर कर जीना होगा?
एस.के. दीक्षित
लखनऊ। पिछली लोकसभा में पारित नये कानूनों के सोमवार से लागू होने के साथ ही भारत में नये सिरे से देश भर में पुलिस राज की शुरुआत हो रही है? ऐसे वक़्त में जब दुनियां भर के विकसित व लोकतांत्रिक देशों की सरकारें अपने नागरिकों को अधिक आज़ाद और अधिकार सम्पन्न कर रही हैं, भारत को ‘लोकतंत्र की जननी’ कहने वाली सरकार ने जिस न्याय संहिता को लागू करने का ऐलान किया है, उससे नागरिकों पर पुलिस के जरिये उसका सख़्त पहरा बैठ जायेगा। उसकी आज़ादी को जैसा बड़ा ख़तरा नयी न्याय संहिता से होने जा रहा है, वैसा पहले कभी नहीं रहा। लिहाजा अब आपको सावधान रहना होगा। इसके लिए या तो पुलिस से डर कर रहना होगा अथवा उससे दोस्ती कायम करके आप अपने को सुरक्षित महसूस कर सकेंगे?
ब्रिटिश कालीन अनेक पुराने कानूनों को हटाकर या बदलकर गुलामी की मानसिकता से मुक्ति दिलाने के नाम पर भारतीय दण्ड संहिता में व्यापक फेरबदल कर दिये गये हैं जिनसे जहां एक तरफ काफ़ी समय तक व्यवहारिक दिक्कतें तो आयेंगी ही, पुलिस दमन की राहें भी खुल जायेंगी। अनेक अधिवक्ताओं का मानना है कि नये कानून पुलिस के हाथ मज़बूत करेंगे और नागरिकों को न्याय पाना और भी कठिन हो जायेगा, जो पहले से कठिन है। भारत के सन्दर्भ में पहले ही कहा जाता है कि यहां की न्यायिक प्रक्रिया अपने आप में सज़ा पाने से कम नहीं है, जिसमें दोषी व निरपराध दोनों एक सरीखे पिसते हैं। सिर्फ पहुंच और पैसा राहत देता है- निर्दोष को भी, अपराधी को भी।
यह तो रहा नये कानूनों का व्यवहारिक पक्ष, लेकिन जो नये कानून लाये गये हैं और जैसा उनका प्रभाव पड़ने जा रहा है, वह कहीं अधिक भयावह है। उनमें से कुछ का उल्लेख किया जाना समीचीन होगा। पुलिस व न्यायिक अभिरक्षा में आरोपी को रखने की वैध मियाद को 15 दिनों से बढ़ाकर अब तीन महीने तक कर दिया गया है। यानी अब बिना पुलिस के चाहे किसी का भी 90 दिन से पहले जमानत पाना आसान न होगा। किसी के मुकदमे का दर्ज होना या न होना भी पुलिस की इच्छा पर निर्भर होगा। मसलन पुलिस आपकी शिकायत पर तत्काल मुकदमा लिखने को बाध्य नहीं होगी। पहले वह जांच करेगी तब मुकदमा लिखेगी। अब भारतीय व्यवस्था में पुलिस की जांच कैसे होती है तथा उनमें धन अथवा राजनीति का प्रभाव कैसे होता है यह बताने की जरूरत नहीं है। जाहिर है कि ऐसी हालत में कमजोर और गरीब का ही नुकसान होगा। क्योंकि उसके पास न पैसा होता है और न ही प्रभावशाली राजनीतिक जुगाड़।
‘राजद्रोह’ शब्द तो नयी न्यायिक संहिता से हटा दिया गया लेकिन बहुत से नये आधार बनाकर लोगों को जेलों में बगैर मुकदमा चलाए आसान तथा जमानत प्रक्रिया को कठिन बना दिया गया है। देश की एकता व अखंडता को नुकसान पहुंचाने वाले कृत्यों के खिलाफ लाये गये कानून अप्रत्यक्ष रूप से सरकार के खिलाफ उठने वाली आवाज़ों को खामोश करने का बढ़िया ज़रिया बन जायेंगे। यह धारा लगाने का विवेकाधिकार भी अपेक्षाकृत निचले स्तर के अधिकारी (दारोगा) के पास हो गया है। इनमें भी लम्बे समय तक जमानत न मिलने के प्रावधान कर दिये गये हैं। इस प्रकार के और भी कई फेरबदल हुए हैं।
याद रहे कि पिछली लोकसभा के अंतिम दिनों में ये कानून पास कराये गये थे। पहले दोनों सदनों के तकरीबन डेढ़ सौ सांसदों को निलम्बित करने के बाद केवल सत्ता पक्ष या विरोधी दलों के चंद सदस्यों की उपस्थिति में ये कानून पारित किये गये थे। इस पर न तो पर्याप्त चर्चा हुई और न ही न्यायविदों व कानून विशेषज्ञों की राय ली गई। बहरहाल अब नये कानूनों के साये में जीने के लिए आदत डालने के लिए तैयार रहिये।