इतिहास: अंतिम हिन्दू सम्राट थे राजा विक्रमादित्य, शेरशाह शूरी के शासनकाल में सीखा था राजशाही का तरीका
अजीत सिंह
सिद्धार्थमगर। भारतीय इतिहास शौर्य गाथाओ से सराबोर है। इन शौर्य गाथाओ के अदम्य साहस और वीरता की गाथाये आज भी प्रेरक मिसाल बनी हुयी है। ऐसे में रणबांकुरो में अंतिम हिन्दू सम्राट हेमचन्द्र विक्रमादित्य, जिन्हें हेमू के नाम से भी जाना जाता है, का नाम स्वर्ण अक्षरों में अंकित है।
एकसाधारण व्यापारी से विक्रमादित्य की पदवी तक का सफरनामा उनके अद्भुद साहस, कुशाग्र बुद्धि एवं प्रेरक रणकौशल का प्रमाण है।
हेमचन्द्र विक्रमादित्य का जन्म आश्विन शुक्ल दशमी विक्रमी संवत 1556 (1501 ईस्वी ) में राजस्थान केअलवर जिले के अंतर्गत माछेरी नामक गाँव के एक समृद्ध धूसर भार्गव परिवार में हुआ था। हेमू के पिता राय पूरनदास संत प्रवृति के नेक इन्सान थे जो पुरोहिती कार्य करते थे। बाद में उन्होंने हरियाणा के रेवाड़ी स्तिथ क़ुतुब पुर नामक क्षेत्र में रिहायश कर यहा व्यापार शूरू किया। वह मुख्यत: तोप और बंदूक में प्रयोग किय जाने वाले पोटेशियम नाइट्रेट (शोरा) का व्यापार करते थे।
हेमू ने अपनी शिक्षा में संस्कृत एवं हिंदी के अलावा फारसी, अरबी और गणित का अध्ययन भी किया था। शरीर सौष्ठव एवं कुश्ती के शौक़ीन हेमू को धर्म एवं संस्कृति विरासत में मिली थी।
वल्लभ सम्प्रदाय से जुड़े उनके पिता वर्तमान पाकिस्तान के सिंध क्षेत्र सहित प्राय: विभिन्न हिन्दू धार्मिक स्थलों का दौरा करते थे। हेमू ने अपना सैनिक जीवन शेरशाह सुरी के दरबार से शुरू किया। शेरशाह के पुत्र इस्लाम शाह के दरबार में हेमू अनेक महत्वपूर्ण पदों पर रहे। और 1548 में शेरशाह सुरी की मृत्यु के बाद इस्लाम शाह ने उत्तरी भारत का राज सम्भाला।
उन्होंने हेमू के प्रशासकीय कौशल, बुद्धि, बल और प्रतिभा को पहचान कर उन्हें निजी सलाहकार मनोनीत किया। वे हेमू से न केवल व्यापार और वाणिज्य के क्षेत्र में सलाह लेते थे बल्कि प्रशसनीय कार्यो और राजनितिक कार्यो में भी उनसे विमर्श करते थे।
यही कारण था कि उन्हें बाजार अधीक्षक जैसी महत्पूर्ण जिम्मेदारी सौंपी गयी और बाद में उन्हें दरोगा-ए-चौकी जैसे अति महत्वपूर्ण पद से सुशोभित किया गया जिस पर वह इस्लाम शाह की मृत्यु (30 अक्टूबर 1553) तक रहे। नागरिक एवं सैन्य मामलो के मंत्री तक निरंतर पदोन्नति पाने वाले हेमू को इस्लाम शाह ने भतीजे और उत्तराधिकारी आदिल शाह सुरी ने “विक्रमादित्य” की उपाधि प्रदान की क्योंकि उनके लिए कई लड़ाईयां लड़कर हेमू ने हुमायु के शाशनकाल में भी उसके लिए कुछ क्षेत्र सुरक्षित रखा।
उत्तराधिकारियों के झगड़े की वजह से बिखरते राजवंश को कमजोर शासक आदिल शाह के लिए हेमू ही आशा की एक किरण, एक मजबूत स्तम्भ बना।
मध्ययुगीन भारतीय इतिहास में हेमू एकमात्र हिन्दू था जिसने दिल्ली पर राज किया। मुगल सम्राट हुमायु की अचानक मृत्यु हेमू के लिए एक देवप्रदत्त संयोग था। उसने ग्वालियर से अपनी सेना एकत्रित कर दिल्ली की ओर कुच किया था।
मुगल जनरल इस्कन्दर उजबेक खान आगरा ,इटावा ,कालपी और बयाना खाली कर दिल्ली में मुगल जनरल मिर्जातरगी बेज से जा मिला। हेमचन्द्र ने दिल्ली के निकट तुगलका बाद में 7 अक्टूबर 1556 को मुगल सेना के छक्के छुडाये। दिल्ली से भागकर मुगल सेना सर हिंद में एकत्रित हो गयी। हेमू ने दिल्ली की राजगद्दी प्राप्त की और महाराजा विक्रमादित्य के रूप में अपना राजतिलक करवाया किन्तु पानीपत के युद्ध में उनकी पराजय निसंदेह एकदुर्घटना थी।
अनेक इतिहासकारों ने लिखा है कि यदि हेमू युद्ध में विजयी होता तो आज भारत का इतिहास कुछ अलग ही होता। एक युद्ध में हेमू की आँख में लगे तीर ने युद्ध में पासा ही पलट दिया। हेमू की सेना अपने सेनानायक को न पाकर ह्तौत्साहित होकर बिखर गयी और दुसरी ओर मुगल सेना में नई जान आ गयीऔर देखते ही देखते युद्ध का नक्शा ही बदल गया।
बैरम खां के लिए यह घटना अप्रत्याक्षित थी। युद्ध में विजय के अलावा अपने बड़े शत्रु को अपने कब्जे में देखना उसके लिए असम्भव सी बात थी। बैरम खां ने अकबर से प्रार्थना की कि वे हेमू का वध करके गाजी की पदवी का हकदार बने।
हेमू को मरनासन्न स्थित में देखकर अकबर ने इसका विरोध किया लेकिन बैरम खा ने आनन फानन में अचेत हेमू का सिर धड सेअलग कर दिया।
हेमू की हत्या के बाद जहा उनके सिर को अफ़घान विद्रोहियों के हौसले पस्त करने के लिए काबुल भिजवाया गया, वही स्थानीय विद्रोह को कुचलने के उद्देश्य से उनके धड़ को दिल्ली के पुराने किले के दरवाजे पर लटकाया गया। इतना ही नही, हेमू वंश पर अत्याचार का कहर ढाया गया।
उनके 80 वर्षीय संत पिता को इस्लाम धर्म अपनाने के लिए बाध्य किया गया किन्तु उनके पिता ने जब साफ़ शब्दों में कह दिया कि मैंने पुरे 80 साल जिस धर्म के अनुसार ईश्वर की प्रार्थना की अब मौत के डर से क्या सांध्यकाल में अपना धर्म बदल लू ? उसके बाद पीर मोहम्मद के वार से उनके शरीर के टुकड़े कर दिए गये।
बैरम खा हेमू और उनके पिता तथा परिवार पर किये गये अत्याचारों से संतुष्ट नही था इसलिए उनके समस्त वंशधरो को अलवर, रेवाड़ी, कानोड़, नारनौल से चुन चुन कर बंदी बनवाया गया। हेमू के विश्वासपात्र अफ्ग्गान अधिकारियों एवं सेवको को भी नही बक्शा गया। अपनी फतेह के जश्न में उसने सभी धूसर भार्गव और सैनिको के कटे हुए सिरों से एक विशाल मीनार बनवाई।
हेमू के प्रेरक जीवन पर आधारित अनेक पुस्तको में उन्हें अदम्य साहस एवं वीरता का पर्याय बताया गया है।
इतिहासकारों एवं लेखको ने अंतिम हिन्दू सम्राट के साथ पानीपत के मैदान में हुयी दुर्घटना को भाग्य की विडम्बना करार देते हुए एक सच्चा राष्ट्रभक्त बताया है ।