शोहरतगढ़- निकलोगे तो हर मोड़ पे मिल जायेंगी लाशें, ढूंढोगे तो इस शहर में कातिल न मिलेगा
नजीर मलिक
निकलोगे तो हर मोड़ पे मिल जायेंगी लाशें
ढूंढोगे तो इस शहर में कातिल न मिलेगा
किसी शायर की ये पंक्तियां सिद्धार्थनगर में बिगड़ते सांप्रदायिक माहौल पर सटीक बैठती हैं। पिछले दो दशक में यहां तकरीबन आधा दर्जन सांप्रदायिक घटनाएं हो चुकी हैं। इस माहौल में कई लाशें भी गिरीं लेकिन असली मुजरिम आजतक कानून की गिरफ्त से बाहर रहे। सिस्टम किसी भी बड़े दोषी को सजा नहीं दे पाया। हाल यह है कि हर दंगे के बाद खुल्लम-खुल्ला घूमने वाले मुजरिम अगले दंगे की तैयारी में जुट जाते हैं।
शोहरतगढ़ में मुहर्रम के दिन हुई भगदड़ में एक आदमी की मौत हो चुकी है। कई अभी तक चोटिल हैं। हालात काबू करने के लिए पुलिस को पिटाई करनी पड़ी। दोनाें पक्षों के 15 लोग गिरफ्तार किए गए जिनमें नगर पंचायत शोहरतगढ़ अध्यक्ष के पति और हिंदू युवा वाहिनी के नेता सुभाष गुप्ता भी शामिल हैं।
यह पहली बार है कि सिद्धार्थनगर पुलिस ने हिंसा और तनाव फैलाने के आरोप में दोनों समुदायों के कई प्रमुख चेहरों को जेल की हवा खिला दी। वरना अब तक पुलिस कुछ छुटभैयों पर मुकदमा कायम करके लीपापोती में जुट जाती थी। पुलिस की कार्रवाई बताती है कि इस बार पुलिस राजनीतिक दबाव का शिकार नहीं हुई। नतीजा यह हुआ कि हिंसा भयावह रूप लेने से पहले ही थम गई।
1985 से लेकर अभी तक शोहरतगढ़ में कई बार लूटपाट और आगजनी की वारदात हुई हैं, लेकिन बड़ी मछलियां कानून के शिकंजे से बाहर रही थीं। मुमकिन है कि इस बार हुई कार्रवाई का असर देर तक रहे और शोहरतगढ़ में लम्बे वक्त के लिए शांति बहाली मुमकिन हो सके।
डुमरियागंज में पहला दंगा
जिले में दंगे के दौरान किसी की मौत का पहला वाकया डुमरियागंज में हुआ था। 1983 में मंदिर तिराहे पर हुई इस घटना में भाजपा के उग्र प्रर्दशन के दौरान पुलिस फायरिंग हुई थी, जिसमें पुलिस की गोली से एक आदमी मारा गया था। दर्जनों जख्मी हुए थे। अनेक प्रदर्शनकारी पकड़े गये थे, लेकिन सच्चाई यही है कि उस घटना के सूत्रधार का बाल तक बांका न हुआ।
डुमरियागंज कांड को जानने वाले आज भी निजी बातचीत में एक सियासतदान का नाम लेकर कहते है कि सारी साजिश उसी की थी, लेकिन पुलिस उसका कुछ नहीं कर पाई। छोटे-छोटे कार्यकर्ताओं को जरूर जेल की हवा खिलाई गई।
सिद्धार्थनगर में भी बरी रहे असली दोषी
साल 1991 में जिला मुख्यालय पर दुर्गापूजा के दौरान एक रात में तनाव फैला था। आरोप था कि दुर्गा प्रतिमा पर मांस फेंका गया है। इस घटना की प्रतिक्रिया में शहर में तोड़फोड़ और पथराव हुआ। इस कांड में भी कई चेहरे चर्चा का केन्द्र बिंदु रहे। आज भी कहा जाता है कि पुलिस ने असली दोषियों को पकड़ने से परहेज किया।
इस घटना के कुछ दिन पहले सदर तहसील के शंकरपुर गांव में अल्पसंख्यकों के एक दर्जन घर जलाये गये। दिनदहाड़े लूट की गई, अनेक लोग जेल गये, मगर इस हिंसा की अगुवाई करने वाले आज भी शहर में घूम रहे हैं। उन पर कोई मुकदमा कायम नहीं हुआ।
बैरवास कांड में भी नहीं पकड़े गये असली अपराधी
जिले में सबसे बड़ी साम्प्रदायिक घटना वर्ष 2001 लोटन कोतवाली के बैरवास गांव में हुई। यहां अल्पसंख्यकों के कई घर आग के हवाले कर दिये गये। दर्जनों मकान दिन दहाड़े लूट लिए गये। मदरसा तक जला दिया गया।
इस हिंसा के दौरान जिले के एसपी शैलेंन्द्र प्रताप सिंह ने थे। उन्होंने फौरन इसे कंट्रोल किया। पुलिस की फायरिंग में दो लोग मारे गये, लेकिन यहां सांप्रदायिक आग में घी डालने वाले नेताओं के खिलाफ कोई एफआईआर दर्ज नहीं की गई, जबकि इस घटना की चर्चा करने पर आज भी लोग असली दोषियों का नाम लेते मिल जायेंगे।
असली मुजरिमों पर क्यों नहीं होती कार्रवाई?
इन दंगों का इतिहास पता करने पर पायेंगे कि असली मुुजरिम हमेशा बच जाते हैं। ऐसा क्यों होता है? इस पर बुद्धिजीवी तबका मानता है कि अमूमन ऐसे दंगाई सियासी चोला पहनकर रसूख हासिल करते हैं। फिर इस तरह की हिंसा में उसी रसूख का इस्तेमाल करके बच जाते हैं।जिले में कई ऐसे अफसर आए जिनपर राजनीतिक दबाव नहीं होता तो वे दंगाईयों को जेल की हवा खिला देते। लेकिन इस दबाव की वजह से अफसरान उन पर हाथ डालने के बजाये कुछ कमजोर लोगों को गिरफ्तार कर मामले को ठंडा करने की नीति पर चलते हैं।