बांसी, शोहरतगढ़ की सीटों पर आत्मसमर्पण की मुद्रा में दिख रही सपा
नज़ीर मलिक
सिद्धार्थनगर। यह समाजवादी पार्टी के चढान का दौर है। उप्र के राजनीतिक विश्लेषकों का एक खेमा सूबे में अखिलेश यादव की सरकार बनने तक का दावा करने लगा है, लेकिन सिद्धार्थनगर ज़िले के टिकट वितरण में सपा नेतृत्व ने जिस प्रकार मज़ाक कर अपने निष्ठावान कार्यकर्ताओं का मनोबल तोड़ा है उससे ज़िले की दो सीटों पर वह आत्मसमर्पण की हालत में दिखने लगी है तथा सवाल खड़ा हो गया है कि यही नीति उसने अन्य जगहों पर अपनाया होगा तो उसके सरकार बनाने के सपनों का अंजाम क्या होगा?
प्रत्याशी तो कई थे लेकिन….
शोहरतगढ़ विधानसभा सीट पर तो सपा के लिए योग्य उम्मीदवारों की पूरी भीड़ थी। पिछले चुनाव के प्रत्याशी उग्रसेन प्रताप सिंह तो थे ही, चुनाव पूर्व सपा में शामिल हुए क्षेत्रीय विधायक अमर सिंह चौधरी भी थे। इसके अलावा सपा नेत्री जुबैदा चौधरी व पूर्व सांसद आलाक तिवारी भी चुनाव लड़ने में पूरी तरह सक्षम थे। उग्रसेन सिंह के साथ तो उनके पिता व पूर्वमंत्री स्व. दिनेश सिंह की राजनीतिक थाती भी थी। मगर अचानक सपा अलकमान को जाने क्या सूझा कि उसने यह सीट गठबंधन की साझीदार सुभासपा के लिए छोड़ दी।
अब ईश्वर ही बचा सकता है पार्टी की लाज
यहां तक भी ठीक था, मगर सुभासपा के अध्यक्ष ओम प्रकाश राजभर ने इस सीट पर अपनी पार्टी के सिम्बल पर प्रेम चन्द कश्यप को उतार दिया। जो दूर दराज के किसी अन्य जिले के हैं। अभी तक उन्हाकों किसी ने यहां देखा तक नहीं है। वे बाहर से आकर यहां क्या कर लेंगे, यह आसानी से समझा जा सकता है। सपा कार्यकर्ता राजकुमार यादव कहते हैं कि ऊपर से उरे गये कैंडीडेट को स्थानीय कार्यकर्ता कत्तई स्वकार न करेंगे। एक अन्य कार्यकर्ता अबुल कलाम आजाद कहते हैं कि कार्यकर्ता हताश हैं उन्हें कोई आक्सीजन देने वाली नहीं है। अब तो गठबंधन प्रत्याशी की साख ऊपर वाला ही बचा सकता है। खबर है कि गठबंधन प्रत्याशी को यहां कार्यकर्ता तक नहीं मिल रहे।
बांसी में भी हालात खराब
बांसी विधानसभा सीट पर वर्तमान में भाजपा के विधायक जय प्रताप सिंह काबिज हैं जो वर्तमान में स्वास्थ्य मंत्री भी हैं। जय प्रताप सिंह जिले में भाजपा के सबसे मजबूत स्तम्भ हैं। वे पिछले आठ चुनावों में एक बार छोड़ कर कभी नहीं हारे।सन 2007 के चुनाव में उन्हें एक बार लाल जी यादव हरा चुके हैं। लोगों का मानना है कि इस बार लालजी यादव उन्हें हरा सकते थे, मगर यहां भी खेल हो गया। निरंतर तीन नामों की घोषणा कर प्रत्याशी बदले जाते रहे। फाइनली सपा ने यहां से मोनू दूबे नामक एक युवा चेहरे को प्रत्याशी बना दिया। अखिर अखिलेश यादव ने सह आत्मघाती निर्णय क्यों लिया, यह बात किसी की समझ में अब तक नहीं आ रही है।
जयप्रताप जैसी हस्ती से मुकाबला आसान नहीं
जानकार बताते हैं कि मोनू दुबे का राजनैतिक कैरियर नया है। वह युवा हैं उनके साथ कुछ युवा चेहरे जरूर देखे जा सकते हैं लेकिन संग्ठन में उनका कोई प्रभाव नहीं और न ही उनका स्थानीय वर्करों से कोई तालमेल रहता है। उस पर जयप्रताप जैसी कद्दावर हस्ती से टक्कर लेना कोई साधारण बात नहीं। सोनू दूबे की छवि क्षेत्र में एक खिलंदड़़े युवक की है। राजनतिक चातुर्य और गंभीरता की उनमें घोर कमी है। उनके ऊपर कतिपय आरोप भी हैं। इस प्रकार यह अनुमान किया जा रहा है कि वह जयप्रताप सिंह के खिलाफ प्रतीकात्मक चुनाव तो नड़ सकते हैं लेकिन उन्हें बराबर की टक्कर देना सिर्फ सपना हो सकता है।
कुल मिला कर जिले के राजनीतिक प्रेक्षक अभी से इन दोनों सीटों को लेकर कोई आशा कतई नहीं रखते। वह सपा आलाकमान की नीति को भी फिलहाल समझ पाने में असमर्थ हैं। इसके अलावा विश्लेषकगण डुमरियांगज की मजबूत सीट को सपा नेतृत्व की नादानी के कारण फसं गई मान कर चल रहे हैं। अभी तक का ताजा अपडेट यही है। आगे देखना है कि इन दोनों क्षेत्रों में मुख्य संघर्ष में आने के लिए सपा कौन सी रणनीति अपनाती है।