आग का सैलाब बनते गांव के सिवान, जानिए, क्यों बढ़ रही अगलगी की वारदातें

April 16, 2017 1:28 PM0 commentsViews: 938
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ओंकार सिंह 

kisan

गोरखपुर। मार्च-अप्रैल में सोने की तरह चमकते गांवों के सिवान अचानक आग का सैलाब बन जाते हैं। चंद घंटों में सैकड़ों एकड़ फसल खाक। बस्तियां भी जद में आती हैं। जान-माल पर भी आफत। अखबार में सुर्खियां भी। पर जनप्रतिनिधि औऱ प्रशासन को बडी योजनाओं के बड़े आँकड़ों से फुरसत कहां? फुरसत मिले भी तो बस सांत्वना खैरात! जो ‘इन मामूली’ आँकड़ों के लिहाज से भी मामूली।

इधर एक दशक में पूर्वांचल के सिद्धार्थनगर, महराजगंज, गोरखपुर, संतकबीरगर, देवरिया, कुशीनगर, गलरामपुर व गोंडा आदि जिलों में रबी के सीजन में अगलगी की घटनाओं में साल दर साल बढोत्तरी हुई है। अप्रैल के शुरुआत में ही सैकड़ों एकड़ फसल स्वाहा हो गए। दर्जनों गांव तबाह हुए। दर्जन भर मौंते हुईं। हुआ क्या? शासन ने सहायता राशि घोषित कर दी। ढाई एकड़ पर 15 हजार और पांच एकड़ पर 30 हजार। जबकि प्रति एकड़ पर किसान की लागत आती है 12 से 14 हजार।

साल दर साल हो रहे नुकसान के आँकड़ों का भले ही शासन प्रशासन पर असर न पडे। पर महीनों की मेहनत मशक्कत के सुनहरे अरमानों का चंद घंटों में खाक हो जाना किसानों के लिए बज्रपात जैसा होता है। इनमें कुछ तो ऐसे होते हैं जिनके हिस्से कोई सांत्वना या आपात राशि भी नहीं आती। वह सिर्फ अपनी मेहनत मजदूरी दूसरे की थाली में रोपते हैं (अधिया-बटाई)। बड़ा सवाल, आखिर हर बरस अगलगी की इन घटनाओं पर कंट्रोल क्यों नहीं? क्या इसे सिर्फ कुदरती कोप माना जाए? या फिर इसके स्थाई कारण हैं जिस पर ध्यान देने की फुरसत नहीं… क्या है वह?

 बिना आग के धुआं नहीं उठता

बगैर कारण तो कुछ भी नहीं होता। सो कारण यहां भी बनते हैं। कहीं डंठल जलाने, कंबाइन या रिपर मशीन (भूसा बनाने वाली) से निकली  चिनगारी, शार्ट सर्किट या फिर चूल्हे और धुइंहर से फैली आग। पर यह तो कारण को सतही रूप में आंकना है। असल में इसके पीछे कुछ स्थाई कारण है। जो शासन-प्रशासन की शह से लगातार भयानक रूप ले रहा है। सिस्टम या तो इसकी तहों में जाना नहीं चाहता या फिर इसके लिए उसके पास फुरसत नहीं।

सिवान की एकांतता में दखल

बचपन में बड़े-बुजुर्ग कहते थे- अपने गांव के बगीचे और दूसरे गांव की पोखरी में बच के जाना चाहिए। अब अगली पीढ़ी के लिए यह सीख या चेतावानी बेमानी है। क्योंकि बीते दशक में गांवों का अराजक विस्तार हुआ है। बाग-बगीचे, ताल-तलैया और पोखर सब लुप्त होने के कगार पर है। सिवान की एकांतता भंग हुई है। दूर तक फैले सिवानों में बाग और पोखर एक तरह के ब्रेकर को काम करते थे। जो एक छोटे दायरे में अगलगी को रोक देते थे।

खेती के दायरे तंग, खलिहान अब गायब

अस्त व्यस्त तरीके से बसाव की  स्थितियां ग्रामीण ईको सिस्टम को ही छिन्न-भिन्न कर डाली है। जिससे खेती के दायरे तो तंग हुए ही हैं खलिहान अब गायब हो गये। खलिहानों के न होने से छोटे और सीमांत किसान भी फसल की कटाई के लिए मशीनों पर निर्भर हो गए हैं। नतीजा सिवानों में एक साथ फसलें खड़ी रहती हैं। चकरोडों और रास्तों के अतिक्रमण के कारण भी लोगों एक साथ फसल कटाई का इंतजार करना पड़ता है।

सिवानों के नजदीक हो गए गृहस्थी व व्यवसाय

संपर्क मार्गों और बिजली के खंभों के संजाल ने घर-गृहस्थी और व्यवसाय को सिवान के साथ गड्ड-मड्ड कर दिया। तंग होती ग्रामीण बस्तियों से निकलकर लोग अब इन संपर्क मार्गों व सड़कों पर बसना शुरू कर दिये। यहीं पर अपनी गृहस्थी के साथ छोटे-मोटे व्यवसाय कर लिए। साथ ही जरूरत के मुताबिक बिजली के तार व खंभे भी खींच लिए। यही नहीं इन सड़कों के समानांतर गड्ढे या खाई को भी पाट लिया। घर गृहस्थी और व्यवसाया की सिवानों से ये नजदीकियां भी इन हादसों का कारण बनती हैं।

सब कुछ विकास के नाम पर

सबकुछ विकास के नाम पर और सबकुछ विकास के कीमत पर भी। सिस्टम गांवों की किस्मत इसी आधार पर तय कर रहा है। बड़ी-बड़ी बातें और योजनाएं गांव के नाम पर, किसान के नाम पर। पर लूट-खसोट के बाद इनके हिस्से वचती है तो सिर्फ खस्ताहाली व अराजकता। यहीं नहीं स्वास्थ्य, शिक्षा व अन्य कई कल्याणकारी योजनाओं के नाम पर पंचायत स्तर तक फैली लूट का असर छोटे और सीमांत किसानों पर बुरी तरह से पड़ा है। भूमिहीन मजदूरों के लिए अब गांव की आबो-हवा अनुकूल बची ही नहीं। छोटी जोत के किसान भी अपनी जमीने बेचकर कस्बों और शहरों में पलायन कर रहे हैं।

 

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