भूल गये डुमरियागंज में हुई आजादी की जंग, अंग्रेज कैप्टन को मारने व सेनानियों की शहादत  

August 13, 2021 12:27 PM0 commentsViews: 1129
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अजीत सिंह

सिद्धार्थनगर। जंगे आजादी की सबसे भयानक लड़ाई जिले के डुमरियागंज तहसील मुख्यालय के अमरगढ़ मैदान पर हुई थी। जिसमें जिसमें स्वतंत्रता सेनानयों ने भारी शहादत देकर भी अंग्रेज फौज के सेनापित कैप्टन गिफ्फोर्ड को मार गिराया था। इतनी बड़ी जीत के बाद आज लोगों ने अमरगढ़ की गाथा भुला दिया है। युद्धस्थल पर आज भी कैप्टन गिफ्फोर्ड का स्मारक तो खड़ा है लेकिन सेनानियों के नाम एक पत्थर तक नहीं लग सका है।

फरवरी 1858 का महीना था। स्वाधीनता संग्राम अपने चरम पर था। तुलसीपुर (बलरामपुर) की रानी फूलकुंवरि देवी अंग्रेजों को हराते हुए जिले के इटवा तहसील क्षेत्र में घुस आई थीं। इधर डुमरियागंज में भी स्वाधीनता के दीवाने अंग्रेजों से लोहा लेने की तैयारी कर रहे थे। यह खबर मिलते ही अंग्रेज प्रशासक ने रानी के खिलाफ एक और बिटिश पल्टन लखनउ से रवाना कर दिया। उधर वीरांगना व नखनउ के सेनानियों की नायिका बेगम हजरत महल  के निर्देश पर बहादुर योद्धा मोहम्मद हसन खान के नेतृत्व में सेनानियों की एक टुकड़ी भी रानी की मदद के लिए चल पड़ी।

मोहम्मद हसन अपनी फौजी टुकड़ी को लेकर कस्बा गांव (जिला गोंडा) से होते हुए डुमरियागंज पहुंचे। शाम होने वाली थी, अतः उन्होंने डुमरियागंज कस्बे से पांच सौ मीटर दूर खेत और चरागाह के मैदान में खेमा गाड़ा। उस क्षेत्र को अमरगढ़ कहा जाता था। वहां एक नौखान (विशाल ताल जैसी) भी थी। लिहाजा नहाने धोने में भी आराम था। सेनानी वहां व रात्रि विश्राम कर सुबह 15 किमी दूर पहंचना विस्कोहर पहुंचना चाहते थे जहां रानी फूलकुंवरि अपनी सेना के साथ से जूझ रही थी। रात में डुमरियागंज के सेनानियों को भी वहीं आना था।

बस्ती गजेटियर व अन्य ऐतिहासिक तथ्यों के मुताबिक अभी मोहम्मद हसन खान के योद्धा व्यवस्थित भी नहीं हो पाये थे कि मुखबिरी के चलते अंग्रेजी फौज की टुकड़ी ने ब्रिटिश कमांडर कैप्टन गिफ्फोर्ड की अगुआई में हमला बोल दिया। आराम कर रही सेनानियों की टकड़ी ने जैसे तैसे हथियार संभाला और मुकाबले में डट गये। स्वाधीनता सेनानी परिवार के वारिस बताते हैं तुफैल अहमद बताते हैं कि दोनों पक्षों में घेर युद्ध हुआ। इस दौरान सेनानियों के सेनापति मोहम्मद हसन के दो सगे भतीजों ने घेर कर कैप्टन गिफ्फोर्ड को मार गिराया मगर इस साहसिक हमले में वो दोनों भी शहीद हुए। देर रात्रि में युद्ध समाप्त हुआ तो अमरगढ़ मैदान लाशों से पटा हुआ था। सेनापति हसन खां को सेनानियों के एक गुट आगे की लड़ाई के लिए सुरक्षित निकाल कर मैदान से बाहर ले गये। बाकी सब वहीं शहीद हो गये। दूसरे दिन इटवा से खबर आई की तुलसीपुर की रानी में लड़ती हुई मारी गईं।

अमरगढ़ का वह मैदान जहां सैकड़ों सेनानियों की शहादत हुई, वहां आज आज भी अंग्रेज सेनापति कैप्टन गिफ्फोर्ड का स्मारक बना हुआ है, लेकिन सैकड़ों सेनानियों के उस शहादत स्थल पर भारतीय जंबाजों के लिए एक पत्थर तक नहीं लगा। 1857 से लेकर सन दो हजार तक कैप्टन गिफ्फोर्ड के परिजन प्रत्येक वर्ष फरवरी में आकर उसके स्मारक पर कंदील जला कर उसे श्रद्धांजलि देते रहे, लेकिन वतन पर जान देने वाले भारतीय पुरोधाओं को लोग यहीं रह कर श्रद्धा के दो फूल भी अर्पित नहीं कर पाते।

                                                                                                                                                                                          

 

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