डुमरियागंज सीट पर आंकड़े बसपा के और हालात भाजपा के फेवर में, फैसला कांगेस कैंडीडेट पर निर्भर

March 27, 2019 12:06 PM0 commentsViews: 3165
Share news

— गठबंधन का फायदा बसपा उम्मीदवार को, तोे मत विभाजन का लाभ भाजपा को, दोनों दलों की निगाहें कांग्रेस उम्मीदवार पर टिकीं

नजीर मलिक

सिद्धार्थनगर।चुनावी बिसात पर राजनीतिक गोटियां बिछ चुकी हैं। भाजपा से सांसद जगदम्बिका पाल और बसपा से आफताब आलम के नाम तय हो चुका हैं,  यही दोनों लोकसभा सीट पर मुख्य चुनावी प्रतिद्धंदी हैं। अब आगे बहुत कुछ कांग्रेस उम्मीदवार पर निर्भर है। कांग्रेस द्धारा अपने पत्ते खोलते ही चुनावी परिदृश्य का अनुमान बेहद सरल हो जायेगा। इसे समझने के लिए गत चुनाव में इस लोकसभा में वोटों की दलगत स्थिति जानना जरूरी हो जाता है।

क्या था पिछला चुनाव परिणाम

गत लोकसभा चुनाव में डुमरियागंज लोक सभा सीट से भाजपा के विजेता उम्मीदवार सांसद पाल को 2 लाख 98 हजार 845 वोट मिले थे। इसके मुकाबले दूसरे स्थान पर रही बसपा को 1लाख 95 हजार 257 व  सपा को 1लाख 74 हजार 778 वोटे मिले थे। आगमी चुनाव में सपा बसपा मिल कर लड़ रही हैं। ऐसी हालत में सपा बसपा गठबंधन का संयुक्त वोट भाजपा को मिले मतों 71 हजार अधिक हो जाता है।

इसके अलावा पीस पार्टी को भी गत चुनाव में 99 हजार मत प्राप्त हुए थे। उम्मीद है कि पीस पार्टी इस बार भी चुनाव लड़ेगी। मतलब साफ है कि भाजपा पिछले चुनाव नतीजों के आधार पर  गठबंधन से तकरीबन पौन लाख वोटों से पिछड़ती नजर आती है। हालांकि बसपा उम्मीदवार के मुकाबले जगदम्बिका पाल का चुनावी दांवपेंच बेहतर है। मगर इन आंकड़ों से तो बसपा ही मजबूत दिखती है। ऐसे में कांग्रेस पार्टी के कैंडीडेट पर दोनों दल बारीकी से नजर रखे हुए हैं।

कांग्रेस कैंडीडेट का क्या होगा इम्पैक्ट?

गौर करने की बात है कि कांग्रेस का उम्मीदवार क्या प्रभाव डाल सकता है। चुनाव विश्लेषक बताते हैं कि अगर कांग्रेस अपने मुस्लिम नेता और पूर्व सांसद को कैंडीडेट बनाती है तो सकीनन वह अधिक तादाद में मुस्लिम वोटों में सेंधमारी करेंगे, जिसका नुकसान गठबंधन प्रत्याशी को होगा। कांग्रेस प्रत्याशी के रुप में पूर्व सांसद मुहम्मद मुकीम मुस्लिम मतों में जितना बढ़ेंगे, भाजपा की राह उतनी ही आसान होती जायेगी।

कांग्रेस का दूसरा पक्ष यह है कि वह इस बार इस लोकसभा सीट पर हिंदू कैंडीडेट खास कर सवर्ण उम्मीदवार देने पर भी विचार कर रही है। अगर उसने किसी रणनीति के तहत सवर्ण कैंडीडेट दिया तो वह सवर्ण वोटों में जितनी सेंधमारी करेंगा, गठबंधन के उम्मीदवार को उतना ही लाभ होगा। वैसे अतीत में देखा गया है कि इस मुस्लिम बहुल क्षे़त्र में भाजपा अकसर मुस्लिम मतों के विभाजन की वजह से हारती आई है। 1991, 1998 2014 का चुनाव इसका प्रमाण है।

Leave a Reply