Inside Storyः सपा के लिए अभिशाप बन गया अखिलेश का ‘साफ्ट हिंदुत्व’

March 11, 2022 1:36 PM0 commentsViews: 925
Share news

पूरे चुनाव में अखिलेश ने नरेन्द्र मोदी पर एक भी हमला नहीं किया, जबकि चुनाव उन्हीं के नाम पर लड़ रही थी भाजपा
इतने डरे हुए थे अखिलेश कि वे मुस्लिम उम्मीदवारों के क्षेत्र में जाने से ही नहीं, बल्कि आजम खां का नाम तक लेने से बचते रहे

नजीर मलिक


.सिद्धार्थनगर। 2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में इस बार समाजवादी पार्टी ही नहीं हारी बल्कि समाजवाद भी हार गया। अखिलेश के कुछ निजी समर्थक इस शिकस्त का ठीकरा ईवीएम के सर फोड़ रहे हैं। यह एक प्रकार से हार का सरलीकरण करना है। सच तो यह है कि समाजवादी पार्टी अपनी क्षद्म नीतियों की वजह से हारी है। अखिलेश यादव साढ़े चार साल घर मे बैठे रहे। बोलने के वक्त वे साफ्ट हिंदुत्व की चाशनी में डूबा बयान देते रहे। अध्यक्ष जी न गरीब की समस्या को लेकर सड़क पर उतरे न मुसलमानों के दुख दर्द पर संघर्ष किया, जब कि वही उनका सबसे बड़ा समर्थक वर्ग भो था। अखिलेश यादव ने शायद यह मान लिया था कि नरम हिंदुत्व का रुख अपना कर वे भजपा के वोट बैंक में सेंध लगा लेंगे। यह मूर्खतापूर्ण जी नही आत्मघाती सोच भी थी।

अखिलेश मुलायम सिंह से सीख लें

उन्हें यह नहीं पता था कि इस ‘काऊ बेल्ट” की आधी आबादी को नफरत का ज़हर पिला कर उन्हें खूंखार रोबोट में तब्दील किया जा चुका है जो 500 रुपया लीटर पेट्रोल लेकर भी मोदी योगी को जिताने की बात करता है। वह तीन सौ युनिट फ्री बिजली, छात्र-छात्राओं को लैपटाप, साइकिल देने की बात नहीं सुनता है। न ही दसे फसल खा जाने वाले आवारा पशुओं से कोई दिक्कत है। उसे तो बस योगी और मोछी चाहिएz जे कपड़ों के आधर पर घर्म पहचानते हैं।,
ऐसे में अखिलेश यादव को नेता जी यानी मुलायम सिंह से सीखना चाहिए था, साम्प्रदायिकता के खिलाफ खुल कर लड़ना चाहिए था। उन्हें नरेन्द्र मोदी पर जम कर वार करना चााहिएथा, जैसे कि कांग्रेस करती आ रही है। मगर अखिलेश यादव शायद नेताजी के वास्तविक और वैचारिक उत्तराधिकारी बिल्कुल नहीं हैं। वे अना आदर्श शायद मायावती को मानते हें, जिनकी घिघ्घी भाजपा के समाने बंधी रहती है। जो आज प्रदेश में एक सीट भी पाकर खुश हैं।

सन 92 में भी यही हालात थे मगर…

1992 में ठीक यही हालत थे जब नेता जी ने फिरकापरस्त ताकतों पर हल्ला बोला था। तब वह नेता के रूप में राष्ट्रीय राजनीतिक क्षितिज पर प्रतिष्ठित हुए थे। अखिलेश यादव या तो आगे से यही करें या तो पार्टी से किनारा कर जाएं। असली समाजवादी अपना नेता चुन लेंगे। मैं जानता हूँ अखिलेध के समर्थक मेरी इस बात का बेहद बुरा मानेंगें, मगर आज की कड़वी हकीकत यही है।

मुझे याद है कि 91 में हुई चुनाव के पहले की उच्चस्तरीय बैठक, जिसमें मुलायम सिंह ने साफ कहा था कि यह चुनाव वह हारने जा रहे हैं, मगर हम साम्प्रदायिकता से समझौता नही करेंगे। जिसका लाभ आगे मिलेगा और हुआ भी वही, उन्होंने 1993 काशीराम से मिल कर साम्प्रदायिक ताकतों को न केवल शिकस्त दिया वरन चुनाव जीत कर सरकार भी बनाई।हैरत है कि इतनी कद्दावर शख्सियत वाले पिता को पाकर भी अखिलेश उनसे सीख न ले सके।

Leave a Reply