68 साल पहले 9 महीने की सायकिल यात्रा कर हज करने मक्का पहुंचे थे गोरखपुर के 11 अकीदतमंद

September 9, 2021 2:25 PM0 commentsViews: 224
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-राजस्थाना-पाकिस्तान बार्डर पर पकडे जाने पर खुद जवाहर लाल नेहरू ने बनवाया था सभी का पासपोर्ट

बगदादमें अब्दुल मोईद का पासपोर्ट गायब हुआ, फिर रहस्मय तरीके से बड़े पीर की मजार पर मिला

नजीर मलिक

गोरखपुर। जीवन में एक बार हज करना हर मुसलमान की प्रबल इच्छापूरी होती है। लेकिन हज कि लिए भारत के नेपाल सीमा के छोर से साऊदी अरब तक साइकिल यात्रा मक्का में नमाजे हज अदा करने वाले बिरले हर लेते हैं। इसके लिए जज्बा जोश और ईमान सब कुछ चाहिए होता है। ऐसा हर जज्बा गोरखपुर के उन 11 लोगों में भी जिन्होंने तमाम दुश्वारियों का मुकाबला करते हुए 50 साल पहले साइकिल से नौ महीने की यात्रा कर मक्का में नमाजे हज अदा करने कीहिम्मत की थी।

 

आज से 68 वर्ष पहले गोरखपुर के 11 लोग साइकिल से हज की यात्रा पर चल पड़े थे और नौ महीने साइकिल चलते हुए सऊदी अरब पहुंचे। पूरे रास्ते तमाम दुश्वारियों का सामना होने के बावजूद इनका हौसला नहीं डिगा और उन्होने खुदा का घर का दीदार करने का सपना पूरा किया। राजस्थान में पाकिस्तान बार्डर पर इन लोगों को पासपोर्ट नहीं होने पर रोक लिया गया लेकिन यह जानकारी तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को हुई तो उन्होंने इन लोगों का तत्काल पासपोर्ट बनवा दिया।इस बात का चश्मदीद गवाह पासपोर्ट आज भी मोहल्ला खोखर टोला में महफूज है,जिसमें तमाम मुल्कों की मुहर लगी हुई है।

वाक्या 1953 का है जब भारत को आजाद हुए छह साल हुए थे । गोरखपुर के इस्माईलपुर मोहल्ले के ग्यारह लोगों ने सऊदी अरब की मुकद्दस हज यात्रा के लिए कमर कसी। जाने का जरिया बनी साइकिल। उस वक्त विदेश की यात्रा पानी के जहाज से की जाती थीं, लेकिन इन लोगों ने ठान ली थी कि साइकिल से ही हज यात्रा पर जाना है। उस समय साइकिल से कई हजार किलोमीटर की लम्बी यात्रा करना नामुमकिन माना जाता था। खुदा के घर का तवाफ करने की हद और इबादत इस कदर बढ़ी कि राह में आने वाली दुश्वारियों का ख्याल नही रहा। इन साइकिल हज यात्रियों में अब कोई भी इस दुनिया में मौजूद नहीं है। इस ग्रुप के आखिरी सदस्य हाजी अब्दुल मोईद की मृत्यु दस साल पहले हुई लेकिन इस यात्रा को इनके परिवार के लोगों ने सँजो कर रखा है।

हाजी औरंगजेब के चचाजात दादा हाजी अब्दुल हफीज और वालिद हाजी अब्दुल मोईद भी इन यात्रियों में से एक थे।उन्होंने बताया कि वर्ष 1953 में ईस्माइलपुर के 11 लोगों ने मुकद्दस हज यात्रा साइकिल से करने की ठानी। इस ग्रुप के मुखिया बने हाजी पतंग वाले खुदा बख्श। हाजी अब्दुल हफीज भी थे। अब्दुल मोईद की भी जबरदस्त तमन्ना थी लेकिन साइकिल न होने की वजह से मन मसोस कर रह गये। फिर दुकान से हम्बर साइकिल खरीदी गई फिर निकल पड़े हज की मुकद्दस यात्रा पर।

दिल्ली के रास्ते राजस्थान- पाकिस्तान  बार्डर पर इन्हें पासपोर्ट के अभाव में रोक दिया गया। इसकी सूचना एम्बेसी ने भारत सरकार को दी। उस समय भारत के प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू तक पहुंची। उन्होंने इन लोगों के जज्बे को सलाम करते हुये तत्काल पासपोर्ट बनाने का आदेश देकर मुहैया कराया। फिर सफर शुरू हुआ। राह में तमाम दिक्कतें भी पेश आयी। पाकिस्तान तक लोगों की बोलियां समझ में आती थी इसलिए ज्यादा दिक्कत नहीं आयी। जब लोगों को पता चलता था कि यह दस्ता साइकिल से हज यात्रा को जा रहा है तो खूब खिदमत करते थे। तोहफे देते थे। हाजी औरंगजेब ने बताया कि इस दौरान तमाम तरह के वाकयात पेश आये। रेगिस्तानी इलाकों से जब गुजर होता तो गर्म हवाओं से बचने के लिए रेत में साइकिल समेत मुहं ढक कर अपनी जान बचाते थे। जब हवाओं की रफ्तार थम जाती तो रेत को झाड़ते हुये निकलते फिर यात्रा शुरू करते है। पाकिस्तान के अलावा अन्य मुल्कों ईराक, ईरान, सऊदी अरब में अरबी व फारसी बोली जाती थी। जिससे वहां की बोली समझने में दुश्वारी होती थी लेकिन लोग समझ जाते थे कि यह हज पर जा रहे है तो खूब सेवा सत्कार करते थे।

रूकते रूकाते यह यात्रा नौ माह में पूरी हुई। यात्रा के दौरान एक वाक्या काबिलेगौर है। जब ईराक के बगदाद में बडे़ पीर साहब की मजार पर अब्दुल मोईद गये तो वहां पर इनके पासपोर्ट व पैसे वाली थैली गुम हो गयी। काफी ढ़ूंढने पर भी नहीं मिली तो इनके अन्य साथियों ने अपनी यात्रा जारी रखी। बिना पासपोर्ट आगे जाना संभव नहीं था। इसलिए यह यहीं मजार पर रूक गये। यहीं पर रोते-रोते शाम हो गयी। आंख झपकी तो एक बुजुर्ग तशरीफ लाये। परेशानी की वजह पूछी तो आपने अपनी परेशानियां बयां कर दी। उन्होंने खाने के लिए कुछ दिया फिर वह चले गये तो वालिद मोहतरम ने मजार से बाहर आ कर देखा कि पासपोर्ट व पैसे की थैली वहीं पर मौजूद थी। हलांकि इस जगह पर कई बार नजर गयी थी। खैर उन्होंने खुश होकर सफर जारी रखा। फिर जल्द ग्रुप से मुलाकात भी हो गई। सऊदी अरब में तशरीफ लाने पर अब्दुल मोईद की तबियत खराब हो गयी। लेकिन उसके बावजूद आपने हज की रस्म को अंजाम दिया। उन्होंने अपने जीवकाल में लोगों को बताया था कि हर जगह पर चार पांच घंटे ठहराव होता था। खाना पकाया जाता, नमाज वगैरह पढ़ी जाती थी।

 

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