कल तक जिन नेताओं की तस्वीरें होर्डिंग्स पर मुस्कराती थीं, आज वो नालियों में फेंकी जा रहीं

March 12, 2019 2:10 PM0 commentsViews: 599
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      — जिले में आचार संहिता का सच

नजीर मलिक

सिद्धार्थनगर। कल तक जिले में जिन चुनावबाज नेताओं के हंसते और प्रणाम की मुद्रा वाले बड़े बड़े कटआउट चौराहों पर चमकते थे, आज वे कटआउट और तस्बीरें गंदी नालियों में तैरती नजर आ रहीं हैं। यह कृत्य हो रहा है आचार संहिता के नाम पर। ठीक है चुनाव आचार संहिता लगने पर ऐसे होर्डिंग्स उतरनाकानून सम्मत है, मगर उसे अपमानजनक तरीके से फाड़ना, उसे गंदी नालियों में डालना किस कानून में आता है? इसका जवाब प्रशासन के पास होना तो चाहिए ही। वैसे नेताओं से भी इस मुद्दे पर उनकी खामोशी का राज पूछा जाना चाहिए।

ज्ञात रहे कि रविवार शाम को चुनाव आयोग ने लोकसभा चुनावों की घोषणा कर दी। इसी के साथ देश में चुनावी आचार संहिता लग गई। इसके तहत प्रशासन को चुनाव संबंधी हर सामग्री को सार्वजनिक स्थलों से हटाना होता है। प्रशासन ने कल शाम से ही अपनी जिम्मेदारी निभानी शुरू कर दी। जिला मुख्यालय सहित डुमरियागंज, बांसी, इटवा, शोहरतगढ़, बढ़नी समेत हर चौराहों से पोस्टर बैनर उतरे जाने लगे। कुछ तो उतर गये और कुछ उतरे जा रहे हैं। लेकिन प्रशासन उसे अपमानजनक तरीके से निष्प्रयोज्य बना रहा है।

सवाल है कि नेता के लिए आचार संहिता है तो प्रशासन के लिए क्या कोई आचार संहित नहीं है? प्रशासन को प्रचार सामग्री उतरने का आदेश तो है, मगर नेताओं के फोटो वाले बैनरों कट आउटों के अपमान का हक किस कानून ने उन्हें दिया है। मिसाल के लिए जगदम्किा पाल भाजपा के संभावित प्रत्याशी ही नहीं वरन संसद के माननीय सदस्य भी हैं। फिर उनकी तस्वीर को बुरी तरह फाड़ने, नालियों में फेंकने का काम कानूनी कैसे है। क्या यह संसद सदस्य का अपमान नहीं है? क्या जिम्मेदार उसके लिए अवमानना के दोषी नहीं है। लेकिन प्रशासन के अधिकारी ऐसा कर रहे हैं, सवाल है कि क्यों?

जवाब बिलकुल साफ है।  नेता अफसरों को को फूटी आंख भी नहीं सुहाते। कहने को हम नेताओं की कितनी भी बुराई करें, लेकिन यही नेता अफसरों की नकेल कसते हैं। उनके भ्रष्टाचार का विरोध करते है और मौका मिलने पर अफसरों को खुले आम डांट भी पिलाते हैं। यही कारण है कि अफसर उनसे खार खाये रहते हैं और वे अपनी कुंठा चुनावी आचार संहित लगने के बाद निकालते हैं, क्योंकि तब नेता की राजनीतिक शक्ति कमोबेश स्थगित हो जाती है।

इस बार भी नेताओं के बैनरों पोस्टरों की दुर्दशा है। लेकिन हैरत की बात है कि नेताओं की तरफ से कहीं से विरोध की आवाज नहीं उठ रही है। क्यों, क्या राजनीतिक वर्ग अफसरों से कमजोर है या वह अफसरों के पाप में बराबर के साझीदार हैं? आखिर अपने अपमान पर उसकी चुप्पी का राज क्या है? यह सवाल केवल सिद्धार्थनगर जिले के ही नहीं, पूरे भारत के सियासतदानों से है।

 

 

 

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