अलाउद्दीन खिलजी ने 84 बीघा जमीन व एक रुपया रोजाना की ग्रांट दिया था जिगिना धाम मंदिर को

June 2, 2025 2:33 PM0 commentsViews: 508
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एक अल्लाह को मानने वाले दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी

कैसे हुए भगवान विष्णु व महादेव के चमत्कार के सामने नतमस्तक

सिद्धार्थनगर, अमृत विचार।

जिगिनाधाम का ऐतिहासिक लक्ष्मी नारायन मंदिर

प्रचलित इतिहास में सल्तनत और मुगल काल के शासकों की चर्चा अक्सर मंदिरों के विध्वसंक के रूप में होती रहती है। मगर जिले के इटवा तहसील में जिगिना धाम में स्थापित मंदिर को अलाउद्दीन खिलजी की ओर से 84 बीघा जमीन दी गई थी।  इसी के साथ प्रतिदिन दीपक जलाने व आरती के लिए प्रतिदिन एक रूपया ग्रांट भी स्वीकृत किया गया था। यह ग्रांट मंदिर को आजादी के समय तक मिलता रहा। इसके अभिलेख आज भी मौजूद हैं।

मंदिर के प्रांगण में बैठे महंथ विजयदास उर्फ महंथ बबलू बाबा महंथ जी

इटवा तहसील के जिगिना गांव स्थित  धाम के लक्ष्मीनारायण मंदिर का इतिहास बहुत पुराना है। यह मंदिर ग्यारहवीं शताब्दी में बना है। ठीक तारीख वर्तमान महंथ विजयदास को नही मालूम है। लेकिन १२वीं शताब्दी में अिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी के अनुदान दिये जाने सम्बंध अभिलेख से यह प्रतीत होता है कि इसकी स्थापना 11वीं से १२वीं सदी के बीच में हुई होगी। इस बारें में मंदिर के वर्तमान महंथ विजयदास उर्फ महंथ बबलू जी बताते हैं कि १२वीं शताब्दी के अंत में अलाउद्दीन खिलजी अपने विजय अभियान के तहत दो किमी दूर ग्राम कोपा में फौज के साथ डेरा डाले हुए थे।  वे एक ईश्वर में विश्वस करते थे। मंदिर की महत्ता सुन कर वे यहां भी आये, यद्यपि वे बहुदेववाद में विश्वास नहीं करते थे, मगर यहां आने पर उन्होंने भगवान विष्णु व भगवान शंकर के चमत्कार देख कर नतमस्तक हो गये। इसके बाद उन्होंने मंदिर को 84 बीघ जमीन का पट्टा दे दिया और मंदिर में पूजा व आरती के लिए तत्कालीन मुद्रा के रूप में एक रूपया प्रतिदिन का ग्रांट भी दे दिया।  इसके बाद मंदिर को बडा किया गया। यहां बजार लगने लगी। वर्ष में एक बार टैक्स फ्री एक माह का मेला भी लगने लगा। तब से यह परम्परा जली आ रही है।

महंथ  विजय दास बताते हैं कि यह अभिलेख आज भी बस्ती जिले के मुहफिज खाने (कलक्ट्रेट अभिलेखागार)  में सुरक्षित हैं। वर्तमान सिद्धार्थनगर पूर्व में बस्ती जनपद का हिस्सा था। आजादी के बाद से उन्होंने एक रूपया प्रतिदिन का अनुदान भी नहीं लिया। इस बारे में वे बताते हैं कि आजादी के समय एक रूपया प्रतिदिन यानी 365 रुपया लेने के लिए इससे ज्यादा किराया भाडा, रुकने ठहरने में लग जाता था। मंदिर के तरफ से एक रुपये की नयी वैल्यू तय करने की मांग रखी गई मगर आजाद भारत में उनकी मांग मानी नहीं गई। फिर मंदिर ने वह अनुदान लेना बंद कर दिया। सरकारी अभिेलखों में आज भी यह बात दर्ज है।

वर्तमान में महंथ रविदास ने मंदिर का जीर्णोद्धार करा कर उसका रूप निखार दिया है। जलाशय की स्थिति भी ठीक कर दी गई है। इसमें भारी धन खर्च किया गया है। आज भी वहां नियमित रूप  से मेला लगाता है। मगर पुरातात्विक महत्व के इस प्राचीन मंदिर को आज भी सरकारी संरक्षण की जरूरत है। मंदिर का विशाल प्रांगण आज भी चाार दीवारी के बिना असुरक्षित है। जानवर भी नजर चूकने पर यहां आ जाते हैं। मंहंथ जी सरकारी मदद से इस मंदिर की एतिहासिकता को अक्षुण रखना चाहते हैं। यह मंदिर क्षेत्र में साम्प्रदायिक सद्भाव का भी प्रतीक है। यहां मुस्लिम आबादी अपेक्षाकृत अधिक है। सभी में मंदिर को लेकर लगाव है, सभी इसे अपने इलाके की धरोहर मानते हैं और सरकार से विशेष अनुदान की अपेक्षा भी करते हैं।

 

 

 

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