अफसरशाहीः सही बैंकिंग प्रणाली अपना रहे किसान कर्ज माफी में खा गये गच्चा

April 17, 2017 3:48 PM0 commentsViews: 562
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ओंकार सिंह

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गोरखपुर। किसी भी योजना या प्रणाली को अमल में लाने का एक मतलब होता है। यह न सिर्फ विकास की धारा से कटे बहुसंख्यक तबके को सहूलियतें और सुविधा देती है, बल्कि उन्हें एक तरह की कार्यसंस्कृति भी सिखाती है। बात किसान क्रेडिट कार्ड (केसीसी) होल्डर किसानों की फसली ऋण माफी को लेकर है। यह सही है कि इस फैसले से बड़ी संख्या में किसानों को राहत मिली है और मिलनी भी चाहिए। लेकिन इसके तकनीकी पक्ष को देखा जाए बड़ी संख्या में ऐसे  किसान जो इस योजना की सहूलियतों और लाभ के साथ बैंकिंग प्रणाली को भी फॉलो किया, ऋण माफी में गच्चा खा गये।

सच यही है कि सत्ता के मकसद मे राजनीतिक पार्टियां अपने स्वार्थ के लिए ऐसी योजनाओं का मकसद ही भटका देती हैं। 2009 के आम चुनाव में तत्कालीन सत्ताधारी पार्टी कांग्रेस ने भी इस योजना को बखूबी भुनाया। हालांकि इस योजना के श्रीगणेश  का श्रेय भी उसी को है। उस समय भी ऋण माफी का फायदा वास्तविक उपभोक्ताओं को नहीं मिला। विडंबना ही है कि जिन्होंने इस योजना को अमल में लाया वही इसके मकसद को समझने का प्रयास नहीं किया। बस, लंबे समय तक कर्ज न जमा करने वालों को असली कर्जदार मानने की जल्दबाजी और तात्कालिक वाहवाही को लूटले में जुटे रहे। इसी परंपरा को वर्तमान एनडीए सरकार ने भी आगे  बढ़ाया। चुनाव मे तात्कालिक फायदे के लए किसान, कर्ज और माफी का दाव चल दिया। दुर्भाग्य, दोनों ने ही इस योजना के तहत कर्ज और कर्जदार के असल कड़ी की पड़ताल नहीं कर पाए।

किसान और केसीसी

वास्तव में केसीसी खेतिहर किसानों के लिए वरदान जैसी योजना रही है। पूर्वांचल में डेढ़-दो दशक पहले बहुत से खेतिहर किसान जिसके पास बाहरी आय को स्रोत नहीं थे खेती के प्रति उदासीन थे। समय पर खाद-बीज व दवाओं के अभाव में या तो खेत परती रह जाती थी या फिर अधिया-बंटाई पर काम चलाऊ खेती होती थी। इस योजना से वह न सिर्फ खुद के मुनीम हो गये बल्कि गाहे-बेगाहे घर की आपात व्यवस्थाओं को भी संभाल लेने में सक्षम बने। इस स्वालंबन ने उनमें एक जीवतंता लाई और सतर्कता भी। सतर्कता इस मायने में कि इस स्वावलंबन में बैंकिंग प्रणाली और बढ़ते ब्याज कहीं खलल न डाले।

इस लिहाज वह योजना के हर पहलू को बखूबी जानने-समझने का प्रयास करता। मसलन केसीसी की लिमिट, फसली ऋण की समयावधि जिससे कि कम से कम ब्याज देकर अगली निकासी बेफिक्र कर सके। और वह जाने अनजाने बैंकिंग प्रणाली को बखूबी फॉलो करने का प्रयास करता। एक तरह से यह योजना छोटे ओर सीमांत किसानों की लड़खड़ाती गृहस्थी का आकस्मिक निधि बन गया। ऐसे में वह छमाही नहीं तो अपनी वार्षिक किस्त जरूर समय पर जमा कर देता है।

कर्ज और कर्जदार की कड़ी

केसीसी के तहत किसानों के तय रकबे के हिसाब से उनकी फसली ऋण तय की जाती है। फिर इसी लिमिट के तहत किसानों को छमाही और वार्षिक किस्त पर ऋण मुहैया की जाती है। जिस पर न्यूतम 4-7 प्रतिशत की दर से ब्याज तय की जाती है। इसका बेहतर फायदा वही किसान उठा सकता है जो इन किस्तों को फॉलो करे। ऐसा न करने पर न सिर्फ अग्रिम ऋण नहीं मिलेगा बल्कि बकाए के कर्ज पर सामान्य दर का ब्याज देना पड़ेगा। अब वास्तविक कर्ज और कर्जदार की कड़ी यहीं से जुड़ी है। एक जरूरतमंद और वास्तविक उपभोक्ता भला क्यों अपनी आकस्मिक निधि बंद करेगा? वह तो हर हाल में अपने निधि को अपडेट रखेगा।

इसी संदर्भ में महराजगंज के सीमांत किसान शिवकुमार चौधरी के बयान मौजूं हैं- ‘केसीसी माई-बाप है, मान सम्मान है। हमारा हर्ज-गर्ज थामता है। हम तो कर्ज मांगकर इसकी किस्त समय से चुकाते हैं।’ शिवकुमार डेढ़ एकड़ के रकबे पर 35 हजार का फसली ऋण लिए थे लेकिन वह माफी के दायरे से बाहर हैं। हां, उस तबके को जरूर फायदा मिला जिसके पास आय का स्रोत है या फिर कोई बिजनेस-धंधा। वह एक मुश्त रकम निकालकर कहीं लगा दिया, बाकि खाते के अपडेशन से कोई मतलब नहीं।

साल भर के डिफॉल्टर ही फायदे में

अब जवकि फसली ऋण माफी की घोषणा हो चुकी है और उसके मानक में 31 मार्च 2016 तक के कर्जदार ही उसके हकदार होंगे। आंकड़ों के मुताबिक प्रदेश में एक अप्रैल 2016 से 31 मार्च 2017 तक 50 हजार करोड़ से अधिक का फसली ऋण दिया गया। जाहिर है कम से कम साल भर के डिफाल्टर ही इसका फायदा उठाएंगे। वास्तविक उपभोक्ता जो एक तरह से अपनी सहूलियत के हिसाब से ही बैंकिंग प्रणाली को फॉलो कर रहे थे पूरी तरह गच्चा खा गये।

 

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