सर्वेक्षणः मादी सरकार की दस फीसदी आरक्षण की घोषणा पर क्या कहते है बुद्धिजीवी?
नजीर मलिक
सिद्धार्थनगर। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने चला चली की बेला में सवर्णों के लिए दस फीसदी अरक्षण की घोषणा की चर्चा कर देश व्यापी चर्चा को जन्म दे दे दिया है। उनकी यह घोषणा वाकई सवर्णों की मदद करेगी सा केवल यह चुनावी घोषणा साबित होगी, इस पर सोशल मीडिया पर जम के चर्चा हो रही है। उस मंच पर बुद्धिजीवी खास कर सवर्ण इंटेलुक्चुअल क्या कहते है, प्रस्तुत है उनके विचार।
Anil Pandey : गरीब सवर्णों को सरकारी नौकरी में 10% आरक्षण फिलहाल बीरबल की खिचड़ी है। सुप्रीम कोर्ट के अनुसार 50% से अधिक आरक्षण नहीं हो सकता। अब ये आरक्षण 49% में से दिया जाएगा या फिर शेष 50% में से? अभी तो कैबिनेट का फैसला है। आगे देखिए लोकसभा और राज्यसभा में क्या होता है। गरीब सवर्णों की यह बहुत पुरानी मांग रही है कि उन्हें भी सरकारी नौकरियों में आरक्षण दिया जाए। देश के अंदर सवर्ण गरीबों का सर्वे करने, फिर प्रमाणित कर उन्हें गरीबी का प्रमाणपत्र देने में ही एक लंबा वक्त लग जायेगा।
Rahul Singh : आपको जानकर आश्चर्य होगा 10% आरक्षण आर्थिक आधार पर करने का 1993 में तत्कालीन नरसिम्हा राव की केंद्र सरकार का निर्णय सुप्रीम कोर्ट खारिज कर चुका है. मेरी जानकारी में आरक्षण 50% जातीय आधार पर और 10% आर्थिक आधार पर नहीं किया जा सकता, क्योंकि संविधान में जातीय आधार पर ही आरक्षण की व्यवस्था है. इसे संवैधानिक जामा पहनाने में लंबा वक्त और संविधान में व्यापक सुधार की जरूरत पड़ेगी. फिलहाल संविधान में जो व्यवस्था है उसके अनुसार आर्थिक आरक्षण की राह मुश्किल ही नहीं असंभव जैसी है. पूर्व में भी संप्रंग हो या राजग सरकारों में इस मुद्दे को तय करने के लिए कई समितियां बनाई गईं पर परिणाम वही ढाक के तीन पात रहा. उसका सबसे बड़ा कारण यही “आधार क्या हो?” को निश्चित करने का ही मुद्दा रहा! चलाचली की इस बेला में आनन फानन में आज मोदी सरकार द्वारा किए गए इस निर्णय पर मेरी प्रतिक्रिया अपने सवर्ण भाईयों से बस इतनी ही है “भाईयों ठंड रखो अभी।
Devpriya Awasthi : दस फीसदी सवर्ण आरक्षण का लालीपॉप बहुत जहरीला है। अव्वल तो इस आशय का प्रावधान न्यायिक समीक्षा में टिकेगा नहीं और टिका भी देने के लिए नौकरियां ही कहां हैं?
Madan Tiwary : आर्थिक आधार पर आरक्षण संविधान के प्रावधान के खिलाफ है। संविधान संशोधन भी नहीं किया जा सकता क्योंकि सवर्ण नामक कोई वर्ग नहीं है बल्कि जातियां हैं। एक जाति को आर्थिक और दूसरी जाति को सामाजिक पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण संविधान के समानता के मौलिक अधिकार के भी प्रतिकूल है। इसलिए कभी भी यह आरक्षण मान्य नहीं हो सकता। मोदी बराबरी के अधिकार की लड़ाई को कमजोर करने के लिए यह ड्रामा कर रहा है।
Navneet Mishra : 10% का झुनझुना देकर आरक्षण पर हाय-तौबा मचाने वालों का मुँह बंद कराने की कमाल की कोशिश. फिलहाल की बंदिशों के मुताबिक़ आरक्षण का अधिकतम कोटा 50% हो सकता है। तो क्या ओबीसी, एससी-एसटी के कोटे में कटौती कर सरकार जनरल को भी 50 % में समायोजित करेगी या फिर आरक्षण का दायरा बढ़ाकर 60% किया जाएगा। क्या सुप्रीम कोर्ट चुनावी लाभ के लिए खेले इस दांव को आसानी से मंज़ूरी देगी? क्या सुप्रीम कोर्ट अपने उस आदेश को पलटेगी, जिसमें अधिकतम पचास प्रतिशत आरक्षण का कोटा तय किया गया है। हाँ, सरकार और संसद के पास पॉवर जरूर है संविधान संशोधन का। नौवीं अनुसूची का। मगर उच्च सदन में बहुमत है नहीं तो क्या आसानी से प्रस्ताव पास होगा। ऊपरी तौर पर जनरल वर्ग की आँखों में यह फैसला भले ही चमक लाने वाला हो, मगर यह कोई आमूलचूल बदलाव नहीं लाने वाला।
pradyumna Yadav : मोदी कैबिनेट की बैठक में आज सवर्णों को 10 फीसदी आरक्षण दिए जाने के फैसले को मंजूरी मिल गई है. आर्थिक आधार पर आरक्षण देने का फैसला कोई नया नहीं है. आज से पहले नरसिम्हाराव की सरकार ने 25 सितंबर , 1991 को सवर्णों को 10% आरक्षण दिया था. ठीक वैसे ही जैसे आज दिया गया है. बाद में मामला सुप्रीम कोर्ट में गया और सुप्रीम कोर्ट ने इस आरक्षण को अवैध घोषित कर दिया. सुप्रीम कोर्ट के नौ जजों की पीठ ने “इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार” केस के फैसले में इस आरक्षण को यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि आरक्षण का आधार आय व संपत्ति को नहीं माना जा सकता. सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में यह भी कहा कि संविधान के अनुच्छेद 16(4) में आरक्षण समूह को है , व्यक्ति को नहीं. आर्थिक आधार पर आरक्षण दिया जाना समानता के मूल अधिकार का उल्लंघन है.
इसी तरह वर्ष 2017 में गुजरात सरकार द्वारा छह लाख वार्षिक आय वालों तक के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था को न्यायालय ने खारिज कर दिया था. राजस्थान सरकार ने 2015 में उच्च वर्ग के गरीबों के लिए 14 प्रतिशत और पिछड़ों में अति निर्धन के लिए पांच फीसदी आरक्षण की व्यवस्था की थी. उसे भी निरस्त कर दिया गया था. हरियाणा सरकार का ऐसा फैसला भी न्यायालय में नहीं टिक सका. असल में बीजेपी को पता है कि ये फैसला न्यायालय में नहीं टिकने वाला. अतीत में इस तरह के कई उदाहरण मौजूद हैं. बावजूद इसके बीजेपी ने सवर्णों को आर्थिक आधार पर आरक्षण देने का फैसला लिया है. इसके पीछे दो मुख्य कारण नज़र आ रहे हैं. पहला, बीजेपी का सवर्ण वोट बैंक अब खिसकने लगा है और उसे भय है कि 2019 तक यह पूर्णतः उसके पक्ष में नहीं रहने वाला. दूसरा, एससी /एसटी ऐक्ट के बाद सवर्णों के बीच हुए डैमेज कंट्रोल को कम करने के लिए. चुनाव नजदीक है तो इस बात की पूरी संभावना है कि नोटा या अन्य दलों की तरफ़ भागने वाला औसत बुद्धि सवर्ण वोटबैंक इससे पुनः बीजेपी की तरफ लौटेगा. बाकी वो गाना तो सुना ही होगा …दो पल रुका ख्वाबों का कारवां…. बस वही बात है. जिस तरह आननफानन में ये आरक्षण लागू हो रहा है, उसी तरह जल्द ही खारिज भी हो जाएगा.