हारजीत से महत्वपूर्ण यह है कि अखिलेश ने अपने को भविष्य का नेता साबित कर दिया

March 9, 2017 4:12 PM0 commentsViews: 448
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रंजन यादव

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“रंजन यादव नई पीढ़ी के नौजवानों में से हैं जो राजनीति की गहरी समझ रखते हैं और सटीक विश्लेषण करते हैं। आम तौर पर उनकी टिप्पिण्‍यां साबित होती रही हैं। चुना के बाद रंजन यादव का अनुमान है कि परिणाम चाहे जो हो, सरकार किसी की बने, लेकिन अखिलेश यादव ने अपने को भविष्य के नेता के रूप में स्थापित कर लिया है। साथ ही उन्होंने बसपा पर मंडरा रहे एक खतरे की तरफ भी इशारा किया है।पढ़िए दिल्ली से उनकी खास रिपोर्ट।”

उत्तर प्रदेश के चुनाव संपन्न हो चुके हैं, परसों 11 मार्च को मतगणना होगी। आपमें से अधिकतर लोगों ने अपने-अपने पसंदीदा राजनैतिक पार्टियों व नेताओं के लिए धुंआधार प्रचार किया है। गलत-सही, उचित-अनुचित, फर्जी-असली, गालीगलौच-मुहब्बत इत्यादि जैसे भी बन पड़ा। बिना यह सोचे कि इन तौर तरीकों से समाज, लोकतंत्र व आने वाली पीढ़ियों के लिए ऐसा करना, तौर-तरीके क्या प्रभाव डालेंगे। चलिए छोड़िए इन गंभीर व दूरदर्शी बातों को, हम इतना ही गंभीर, दूरदर्शी व सामाजिक ईमानदार होते तो क्या हमारा समाज व देश वैसा होता जैसा है। इसलिए इस मुद्दे को यहीं छोड़ते हैं, यही हमारी फितरत भी है। परसों बसपा, भाजपा, सपा+कांग्रेस, बसपा+भाजपा कोई भी सरकार बना सकता है। इसके बावजूद मैं चुनाव परिणाम आने के पहले उत्तर प्रदेश के राजनैतिक परिदृश्य में कुछ बात खुलकर बिना लागलपेट कहना चाहता हूं।

बसपा :

यह चुनाव बसपा के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं, जीवन-मरण का प्रश्न है। यदि अखिलेश यादव सरकार बना लेते हैं तो पिछले 5 वर्षों में हाथ बंधे रहने के बावजूद जितना उन्होंने करने का प्रयास किया व लोकप्रियता अर्जित की, उससे यही लगता है कि अगले 5 वर्षों में वे बहुत आगे बढ़ चुके होगें। युवा हैं, ऊर्जावान हैं, तार्किक हैं, वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखते हैं बेहतर ही करेंगे। आने वाली पीढ़ी भी अब चाहती है कि विकास के काम हों, राजनीति बेहतर हो। ऐसी स्थिति में यदि बसपा अपने चरित्र में आमूलचूल परिवर्तन नहीं करती है तो उसका सूर्यास्त होना निश्चित है।

2007 में जिसे बसपा की सोशल इंजीनियरी कहा गया वह दरअसल किसी प्रकार की सोशल इंजीनियरी नहीं थी। वह सत्ता प्राप्ति के लिए रणनीति थी, इस रणनीति की सूत्रधार बसपा न होकर उत्तर प्रदेश के सवर्ण थे जो भाजपा के कमजोर होने के कारण एक ऐसे रास्ते को तलाश रहे थे जिससे वे सत्ता में आ सकें। उन्होंने बसपा को सहयोग दिया, बसपा के माध्यम से सत्ता में आए और पूरे पांच वर्षों तक सत्ता का जमकर भोग किया।

2007 में लोग बसपा को पूरी तरह अवसर देकर देखना भी चाहते थे कि देखा जाए कि बहुमत की सरकार आने पर कैसे काम होते हैं।  बसपा पूरे पांच वर्षों तक सत्ता में रही। ऐसा बताया जाता है कि किसी विधायक या नौकरशाह की चूं करने की औकात नहीं रहती बसपा सुप्रीमो जी के सामने।  इसके बावजूद दलितों के विकास के लिए, सोशल इंजीनियरी के लिए कोई दूरदर्शी प्रयास रत्ती भर नहीं हुए। शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक समता, सामाजिक अभय के लिए कोई प्रयास रत्तीभर नहीं हुए।

मोदी जी को जिस प्रकार से विकास पुरुष प्रायोजित किया गया उसके कारण भाजपा पूरे देश में मजबूत राजनैतिक शक्ति के रूप में उभरी। उत्तर प्रदेश के सवर्ण ने बसपा का साथ एक झटके में छोड़ दिया, जबकि ब्राह्मणों को टिकट बांटने वाली तथाकथित सोशल इंजीनियरी बसपा ने फिर की थी।

लोकसभा चुनाव में बसपा ने ब्राह्मणों को खूब टिकट दिए। मुसलमानों के वोट विभाजित करने की भाजपा की रणनीति के तहत यह हवा बनाई गई कि बसपा उत्तर प्रदेश में बहुत सीटें जीत रही है। जब लोग मतदान के लिए लाइन लगाए खड़े थे तब भी अफवाहों फैलाई जातीं रहीं कि फला हो रहा ढिका हो रहा ताकि लोग भ्रम में आएं और वोट विभाजित हों। भाजपा की रणनीति सफल रही, 70 से अधिक सीटें जीतीं। बसपा एक भी सीट नहीं जीती। ब्राह्मणों को टिकट देने वाली तथाकथित सोशल इंजीनियरी ढेर हो गई।

2012 से पूरा भारत मोदीमय हो जा रहा है। 2014 में भाजपा अपने दमपर देश में सरकार बनाई। उत्तर प्रदेश में 80 लोकसभा सीटों में 70 से अधिक भाजपा के खाते में गईं। जाहिर है कि उत्तर प्रदेश का भाजपा समर्थक उत्साह से भरा हुआ है। पैसा, मीडिया, चुनावी रणनीतियों की कोई कमी नहीं, कोई झिझक नहीं।

जो भाजपा समर्थक 2007 में बसपा के साथ खड़ा था वह इस बार बसपा के साथ क्यों खड़ा होगा। जबकि वह मानकर चल रहा है कि भाजपा को उत्तर प्रदेश में बहुमत मिलने जा रहा है। उसे लगता है कि जैसा मिराकल 2014 में हुआ था वैसा ही मिराकल 2017 में भी होगा।

भाजपा :

भाजपा के लिए उत्तर प्रदेश का चुनाव जीतना बहुत महत्वपूर्ण है। राज्यसभा का अंकुश हटाने के लिए यह बहुत जरूरी है। 2019 के लोकसभा चुनावों की दृष्टि से भी यह चुनाव बहुत ही अधिक महत्वपूर्ण है।

लंबी दूरी की राजनीति के लिए भाजपा को बसपा से कोई खतरा नहीं है, भले ही बसपा दस-बीस वर्ष तक उत्तर प्रदेश में सरकार बना कर रहे। भाजपा को खतरा सपा से है, अखिलेश से है, राहुल से है। राहुल का नाम लिया तो आपको हंसी छूट रही होगी, हंस लीजिए लेकिन मैं तो तो अपनी बात रखूंगा ही। मैंने राहुल को आजतक कभी भी पप्पू नहीं माना। बात सिर्फ यह है कि राहुल भारतीय समाज की मानसिकता वाली राजनीति में अनफिट हैं। भाजपा बिलकुल भी नहीं चाहती कि अखिलेश उत्तर प्रदेश में सरकार बनाएं और उनको अपने पंख फैलाने का अवसर मिले।

लेकिन 2017 में प्रदेश स्तर पर भाजपा की स्थिति 2014 जैसी नहीं है। अखिलेश जी की साख अच्छी है प्रदेश में। लोग उनमें संभावनाएं देखते हैं। अखिलेश जी ने उत्तर प्रदेश में विकास पुरुष के तौर पर अपना कद मोदी जी के कद से अधिक विश्वसनीय बनाया है। देश के प्रधानमंत्री को अपनी कैबिनेट व ढेरों सांसदों के साथ एक जिले में लगभग सप्ताह भर रहना पड़ जाए, गली-गली भटकना पड़ जाए जबकि इतना तो खुद उनको अपने लोकसभा चुनाव में न करना पड़ा हो। जाहिर है भाजपा के लिए उत्तर प्रदेश की स्थिति 2014 जैसी बिलकुल नहीं है। स्थिति चिंताजनक है।

बसपा व भाजपा दोनों के लिए ही उत्तर प्रदेश का चुनाव अत्यधिक महत्वपूर्ण है। इसलिए सपा+कांग्रेस को रोकने के लिए एक ही रास्ता बचता है वह यह कि बिना घोषणा किए अंदर ही अंदर मौखिक व चुप्पा समझौता किया जाए।

मीडिया में बहुमत का माहौल बनाया जाए। लंबी-लंबी संख्या में सीटें जीतने के दावे किए जाएं। पब्लिक के सामने एक दूसरे को गरियाने का दिखावा किया जाए, कुछ घटनाएं भी प्रायोजित की जाएं ताकि लगे कि बसपा व भाजपा अलग-अलग हैं। बयानबाजी भी की गई।

अब देखना यह है कि इन सब चुनावी रणनीतियों का वास्तविक असर मुसलमानों में क्या हुआ। 2014 के चुनावों जैसे मुसलमानों को भ्रम में डालने की सफलता मिली या नहीं। यह परसों 11 मार्च को मालूम पड़ेगा, मतगणना के बाद।

कांग्रेस :

कांग्रेस ने सपा के साथ गठबंधन करके अच्छा निर्णय लिया। रणनीति अच्छी रही। गठबंधन सरकार में नहीं भी आता है तो भी कांग्रेस के इस निर्णय को मैं दूरदर्शी निर्णय मानता हूं।

सपा :

विरोधी चीखते चिल्लाते रहे लेकिन अखिलेश इस बात को स्थापित कर पाने में सफल रहे कि वे विकास पुरुष हैं, ऊर्जावान हैं, पारिवारिक व्यक्ति हैं, सोते भी हैं, खाना भी खाते हैं, परिवार को भी समय देते हैं, पत्नी के साथ विश्वास में भी जीते हैं और राजनीति के दांवपेंच भी जानते हैं।

यूं लगता है कि अखिलेश लंबी दूरी की राजनीति करने के इच्छुक हैं, नौकरशाही को नियंत्रित करने में सक्षम हो चुके हैं इसलिए यदि इस बार सरकार बनाते हैं तो नौकरशाही पर बेहतर नियंत्रण रहेगा। 2012 के काल में दो साल से अधिक तो नौकरशाही को समझने व नियंत्रण करने के प्रयासों में ही लग गया। यदि अहंकार नहीं आया और यादव के ठप्पे से उबर पाए तो अखिलेश राष्ट्रीय स्तर की राजनीति को प्रभावित करने में समर्थ होगें ऐसा लगता है।

अखिलेश यदि सरकार में नहीं भी आते हैं तो यह उनके लिए घाटे का सौदा नहीं है। अगली बार वे और अधिक बेहतर नेता के रूप में उभर कर आएंगें। यदि वे हारते हैं तो हार सीखने का दौर होगी, परिमार्जन का दौर होगी। कार्यकर्ताओं में छटनी का दौर होगा। समझने-बूझने का दौर होगा। कोई घाटा नहीं। सर्वजन के नेता के रूप में उभरेंगे। मुझे अखिलेश जी में संभावनाएं दिखाई देती हैं, आगे भविष्य बताएगा।

चलते – चलते :

मैंने यह लेख चुनाव के बाद व मतगणना के पहले इसलिए लिखा, ताकि बिना लाग-लपेट के अपनी बात कह सकूं। यह ऐसा समय है जब मेरी बात चुनाव के लिए किसी के समर्थन या विरोध करने के रूप में नहीं ली जा सकती है। हार या जीत के बाद मक्खन लगाने की बात भी नहीं कही जा सकती है। हममें से कोई नहीं जानता कि मतगणना में क्या होने वाला है। मुझे लगा कि यही उचित समय है अपने विश्लेषण को रखने का। आप लोग भी शायद सहजता से मेरा बात को ले पावें क्योंकि चुनाव हो चुके हैं, जो होना था वह हो चुका।

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