सैलाबी कहर- हम आग से बचे थे, और पानी से जल गये

October 19, 2022 1:09 PM0 commentsViews: 355
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नजीर मलिक

 

सिद्धार्थनगर। पहचानना मुहाल है शोलों की शक्ल का,
             हम आग से बचे मगर पानी से जल गये।

जिले में सैलाब के कहर को देखते हुएकिसी कवि की इन पक्तियों की याद आ जाना स्वाभाविक है। दरअसल आग और पानी की दृष्टि से सिद्धार्थनगर जिला बेहद संवेदनशील माना जाता है। आम तौर से रबी की फसल पकने के बाद यहां आगलगी की घटनाएं शिद्दत से होती है।जिससे हर साल सैकड़ों किसानों की हजारों बीघा गेहूं की फसल खेतों में जल कर ही खक हो जाती है। उनको बचाने के लिए यहां दमकल की व्यवस्था बेहत लचर है। इसलिए रबी सीजन का अतिम दौर उनके लिए कयामत के समान होता है। लेकिन यहां बाढ़ प्रायः हर साल आती है।इसके लिए बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों के नागरिक बरसात के मौसम में सदा पूरी तैयारी से रहते हैं। हल्की बाढ़ में वे आमतौर पर अपने घरों में ही रहते हैं। परन्तु इस बार बाढ़ का स्वरूप बहुत भयानक है।राप्ती नदी के जलस्तर ने पिछले 75 सालों का रिकार्ड तोड़ दिया और जिले के सात सौ गांवों को डुबा दिया।

 

क्या कहते हैं सरकारी आंकड़े

आंकड़ों के मुताबिक बाढ़ से मचे हाहाकार के बीच छह सौ गांव के 4.50 लाख पीड़ित ठहरने, भोजन और आवागमन की दुश्वारियां झेल रहे हैं। हालकि गैर सरकारी सूत्र यह संख्या सात सौ गांव और जनसंख्या 5.5लाख से अधिक आंकते हैं। बहरहाल 15 दिन की बाढ़ में प्रशासन बचाव, सुरक्षा, राहत सामग्री वितरण कार्य से जूझता रहा, लेकिन, यह सब बाढ़ पीड़ितों की आवश्यकता के आगे बौना साबित हो रहा है। आगे भी कुछ दिनों तक पीड़ितों को इस भयावह त्रासदी का दंश झेलने की आशंका है। जिले की 70 हेक्टेयर फसलें पानी में डूब कर सड़ रही हैं। अब तक ११ जानें जा चुकी हैं। चारों तरफ बाढ़ का कहर होने के कारण कस्बों के व्यापार पर भी असर पड़ा है। दूध स्बजी आदिकी भारी कमी देखी जा रही हैं।

क्या है बाढ़ की कड़वी सच्चााई?

अब प्रशासनिक तैयारियों पर नजर दौड़ाएं तो बाढ़ के अंतिम समय तक सिर्फ 242 नाव और 44 मोटरबोट उपलब्ध हो सकी है। बाढ़ प्रभावित गांवों में अधिकांश ग्रामवासी आवागमन के लिए नाव का इंतजार करते दिखे। 4.5 लाख बाढ़ पीड़ितों में प्रशासन की तरफ से अभी तक सिर्फ राहत सामग्री के छह हजार पैकेट बांटे गए हैं। वहीं, इन बाढ़ पीड़ितों के बीच 15 दिन के अंदर सिर्फ 1.12 लाख लंच पैकेट वितरित किए गए।  5 लाख आबादी को प्रतिदिन कम से कम एक बार तो भोजन चाहिए ही ऐसे में सात दिनों से भूखे पीड़ितों के बीच कम से क ३० लाख पैकेट बंटने की जरूरत थी। सोचने का विषय है कि प्रशासन द्धारा वितरित 1.12 भोजन के पैकटों से बाढ़ पड़ितों की क्या मदद हो पायी होगी?  इससे साबित होता है कि चारो तरफ से पानी घिरे गांवों के बाढ़ पीड़ितों को भूखे पेट ही रात-दिन गुजारना पड़ा। बगहवा के राजाराम बताते हैं किपिछले 36 घंटों से भूखे बच्चों को बचाने के लिए उन्हें छाती भर पानी में तैर कर गांव से बाहर जाकर रोटी का इंतजाम करना पड़ा। इसके बरअक्स अपर जिलाधिकारी उमाशंकर का कहना है कि बाढ़ से घिरे गांवों तक राहत सामग्री पहुंचाना मुश्किल है, फिर भी प्रशासन की तरफ से बचाव, राहत सामग्री वितरण का सही तरीके से इंतजाम किया गया है।

लाखों बाढ़ शरणार्थी, बंटा मात्र एक हजार तिरपाल

सैलाब के दौरान घर से न निकल पाने के दर्द को समेटे भूखे प्यासे बाढ़ पीड़ितों को ठहरने तक के इंतजाम के लिए जूझना पड़ रहा है। हजारों बाढ़ पीड़ित कहां तटबंध पर तो कही खाली सड़क पर अपने तम्बू गांड़ कर खानाबदोशों की तरह जी रहे हैं। इसके अलावा किसी ने छत पर ठिकाना बनाया रखा है तो कोई, दूसरे के ऊंचे घर में शरण ले रखी है। बाढ़ से बचने के लिए सार्वजनिक स्थलों पर शरण संभव नहीं क्योंकिबाढ़ प्रभावित क्षेत्र के स्कूल अथवा पंचायत भवन पानी में डूबे हैं। कुछ लोगों ने शरणलिया भी तो उन्हें डुमरियागंज  के ग्राम भरवठिया जैसे हादसे से भयभीत होकर भागना पड़ा। बता दें कि इस शरणालय के ढह जाने से गत दिवस तीन जाने चली गई थीं।

प्रशासन की तैयारी देखे तो उनकी तरफ से सभी तहसील के लाखों बाढ़ पीड़ितों के लिए सिर्फ 1047 तिरपाल का इंतजाम किया गया है। इतनी बड़ी आबादी विस्थापित है और उनके लिए मात्र 1047 तिरपालों के ही वितरण होने से संकट में जूझ रहे इन पड़ितों का दर्द सहज ही समझाजा सकता है।  कुछ स्थानों को छोड़ बाढ़ शरणालय कहीं भी संचालित नजर नहीं आया।  उपर से बादलों की गड़गड़ाहट अभी भी जारी है। ऐसे डरावने माहौल में पीड़ित क्या करें यह उन्हें सूझाई ही नही देता है।

इसलिए आग से बचते हैं व पानी से जलते हैं

जाहिर है कि इस बार किसानों ने रबी की फसल को आगलगी से बचाने और कम से कम नुकसान होने में अपनी सामूहिक भागीदारी कर कामयाबी हासिल कर ली थी और उनका हजारों टन गेहूं जलने से बच गया था क्योंकि सरकारी दमकलों की कमी के बाद भी उनके पास अरग बुझाने केलिए बाल्टियां तो थीं ही, मगर सैलाब में बालल्टियां काम नहीं आतीं। यहां केवल नाव, स्टीमर, व अन्य बाहरी मदद की जरूरत पड़ती है जो इस वक्त भी नकाफी है। इसलिए आग से च कर पानी से जल जाने की बात प्रासिगिक हो गई है।

 

 

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